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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

होलिका की अस्मिता - एक अनुत्तरित प्रश्न ??

# एक अनुत्तरित प्रश्न ???? 
 होलिका यदि भतीजे को मारने के षड्यंत्र का हिस्सा है तो होलिका-दहन के बाद उसकी राख को, स्वास्थ्य, धन, परेशानियों अर्थात सभी तरह की नकारात्मकता के निवारण के लिए सभी लोग माथे से क्यों लगाते हैं ?? 
मेरी समझ में, इस प्रश्न का उत्तर है। - - - - पर उसे, हिमाचल, छत्तीसगढ़ के रायपुर और पश्चिमी राजस्थान की लोक परंपरा तक सीमित कर देशज बनाकर , सबकी स्मृतियों से पोंछ दिया गया। आज वो सच हम सब तक पहुंचाना चाहते हैं।
आज के दिन का भारतीय इतिहास अत्यंत प्राचीन है। 
* वैदिक युग में, फागुन की चतुर्दशी व पूर्णिमा के दिन 'वासंती नव-सस्येष्टि यज्ञ ' में नए अन्न को यज्ञीय ऊर्जा से संस्कारित कर उसे समाज को समर्पित करने का भाव था।  
*भारतीय संस्कृति के सतयुग के प्रारंभिक समय में समष्टिगत कल्याण के लिए, सृष्टि से तारकासुर के आतंक को मिटाने के लिए, व्यक्तिगत हितों को निस्पृह भाव से बलिदान करने वाले, कामदेव को सम्मान दिया गया। भगवान शिव के कोप को सहते कामदेव को प्रतिष्ठा देता - मदन-दहन पर्व !!
 तमिलनाडु में होली को कामदेव के बलिदान के रूप में याद करते हैं। इसीलिए यहां पर होली को कमान पंडिगई, कामाविलास और कामा-दहनम कहते हैं। कर्नाटक में होली के पर्व को कामना हब्बा के रूप में मनाते हैं। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में भी ऐसी ही होली होती है।काम दहनम् के बाद  लोग बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन , हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।
* सतयुग के मध्यकाल में, अपनी ही संतान "प्रह्लाद" के समष्टिगत कल्याण भाव की, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ व अहंकार के लिए बलि चढ़ाने वाले हिरण्यकशिपु से जुड़ा होलिका-दहन का प्रसंग !! भारतीय संस्कृति के आदिकाल से वर्तमान में कलियुग तक चली आई होलिका-दहन की परंपरा लोकचित्ती का अभिन्न अंग रही है। 
* आमतौर पर होलिका-दहन का पर्व बुआ होलिका द्वारा प्रह्लाद को मारने के षडयंत्र से जोड़ कर सुनाई जाती है परंतु प्रह्लाद और नृसिंह अवतार के प्रमाण देते मूलस्थान, वर्तमान मुल्तान से ५५० कि.मी. की दूरी पर बसे हिमाचल प्रदेश में महर्षि कश्यप और दिति की पुत्री होलिका की जो कथा युगों से चली आई है वह होलिका दहन की कथा ऐसी प्रेमकथा है जिसमें होलिका अपने प्रेम के लिए सर्वस्व बलिदान कर देती है । युगों से प्रचलित इस कथा के अनुसार , दैत्य कुल की कन्या, परम शक्तिशाली दैत्यराज हिरण्यकशिपु की बहन होलिका और पड़ोसी राज्य के सर्वगुण संपन्न इलोजी---- इस सौंदर्यवान युगल को जन - साधारण प्रशंसापूर्ण दृष्टि से देखते थे। उनका विवाह का दिन फागुन पूर्णिमा निश्चित किया गया था।हिरण्‍यकश्‍यप जो अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को समाप्त करने के कई प्रयासों में असफल हो चुका था। वो जानता था कि उसकी अग्निपूजक बहन होलिका, अग्नि के दुष्प्रभावों से मुक्त थी। हिरण्यकशिपु को प्रह्लाद से मुक्ति का सफल उपाय दिखाई दिया उसने बहन को बुलाकर अपनी योजना को कार्यान्वित करने को कहा।योजना के अनुसार होलिका प्रह्लाद को अग्नि में लेकर बैठैगी, वो बच जाऐगी प्रहलाद समाप्त हो जाएगा। भतीजे के वध के बारे में सुन कर होलिका चकित रह गई। एक पल को वह कुछ समझ ही नहीं पा रही थी। वह प्रहलाद से बहुत प्रेम करती थी। ऐसे में उसने इस कार्य को करने से मना कर दिया। इतना सुनते ही हिरण्‍यकश्‍यप ने होलिका से कहा कि यदि उसने प्रह्लाद का मृत शरीर उसे नहीं सौंपा तो वह विवाह के लिए आने वाले उसके प्रेमी इलोजी को भयानक मृत्यु देगा। - - - - अपने प्रेमी और भतीजे को बचाने के लिए होलिका नें अपने तप के द्वारा मूक भाव से आत्मबलिदान दिया - - - - और कोई कुछ भी नहीं जान पाया। हिमाचली लोककथा के अनुसार, होलिका एक ऐसी प्रेमिका है जिसने अपने प्रेम को बचाने के लिए स्‍वंय की बलि दे दी। उनके प्रेमी इलोजी जब फागुनी पूर्णिमा को विवाह के लिए आए तो अपनी प्रेमिका की चिता देख आपा खोकर वहीं लेट गए। चिता की राख शरीर पर लपेट  कर इलोजी नें विलाप किया। लोगों नें पानी से उनके शरीर की राख को हटाने का प्रयास किया पर इलोजी बार-बार राख अपने ऊपर मल लेते थे।उसकी याद में हिमाचल में आज भी कई स्थानों पर राख व कीचड़ एक दूसरे पर मल कर होलिका के बलिदान को याद करते हैं।राजस्थान के मारवाड़ में , हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका के होने वाले पति इलोजी राजा को लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। इलोजी के बारे में ऐसी मान्यता हैं कि आजीवन होलिका की स्मृति में एकाकी तपस्वी का जीवन जीने वाले 
ये लोक-देवता, दम्पत्तियों को सुखद गृहस्थ जीवन और संतति परंपरा को बढ़ाने का वरदान देने में सक्षम हैं।छत्तीसगढ़ के रायपुर में भी, होली के अवसर पर , होलिका के अनब्याहे पति इलोजी (जिसे वे नाथूराम भी कहते हैं) को प्रेम के देवता के रूप में पूजा जाता है। 
मैं सोचती हूँ कि अनिर्णय के क्षणों में, जीवन को किस राह पर ले जाएं  - - - - इसके सहजता से चुनाव के लिए  हमारे पूर्वजों नें हमें कितनी सुंदर विरासत दी है - - - - हमारी  संस्कृति नें देवता हों या दैत्य सबके जीवन से प्रेरणा देती घटनाओं को अपनी पारंपरिक स्मृतियों में जीवंत रखा है।हाँ जाने किस कारण भारतीय संस्कृति की विरासत का विकृत रूप समाज में स्थापित होता रहा और सकारात्मक पक्ष को पूरी तरह हाशिए से बाहर खड़ा कर दिया गया। 
आज की पावन अग्नि हम सबके संकल्पों को पावन बनाए। शुभेच्छाएँ।
🙏डॉ स्वर्णअनिल।

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