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मंगलवार, 24 मई 2022

ज्ञानवापी तीर्थ : प्रश्नों के घेरे में क्यों !!

काशी विश्वनाथ की नई सज धज को देखने का उत्साह लिए हम सपरिवार २४ मार्च २०२२ को प्रातः दो बजे भोलेनाथ के द्वार पर खड़े थे। थोड़ी प्रतीक्षा के बाद व्यवस्थित ढंग से पुलिस प्रशासन ने भीतर जाने की आज्ञा दी। हमारा सौभाग्य था कि हमें बाबा विश्वनाथ की मंगला आरती और दर्शन का सौभाग्य मिला। परिसर में देवी मां के विभिन्न स्वरूपों, शिव पंचायत और गलियारे में स्कंद पुराण की प्रसिद्ध कथन की सुंदर दृश्यांकन और मंदिर के स्वर्णिम कलशों को देखकर भाव विभोर हुए। मंदिर के भीतर फोन और कैमरा ले जाने की सुविधा नहीं थी इसलिए इस अद्वितीय यात्रा को चित्रों में नहीं स्मृतियों में ही संजो कर ले आए हैं। इस पूरी यात्रा का विस्तृत वर्णन कई पृष्ठों में हो सकता है।  
भगवान आशुतोष के आनंदपूर्ण दर्शन के बाद बाहर जाने से पहले हम एकाकी बैठे शिव वाहन नंदी और उनके समीप माँ श्रृंगार गौरी के स्थान पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने को रुके। स्कंदपुराण के काशी खंड के "सौभाग्यगौरी सम्पूज्या ज्ञानवाप्यां कृतोदकैः।
ततः शृङ्गारगौरीञ्च तत्रैव च कृतोदकैः॥" 
अर्थात फिर ज्ञानवापी में जाकर उसके जल से सौभाग्यगौरी की पूजा करनी चाहिए। वहीं पर उसी जल से श्रृंगारगौरी की पूजा भी करे। 
---- श्लोक को याद किया और ज्ञानवापी के जल की कल्पना कर माँ  श्रृंगार गौरी की मानसिक पूजा की। शिववाहन नंदी जी के कान में अपनी प्रार्थना कहने की जो परंपरा बचपन से संस्कारों में रची बसी है उसके अनुसार हमनें नंदी जी के कान में अपनी बात कही और चरणों में प्रणाम किया। शून्य में एकटक ताकते नंदी को देखकर मन ऐसा विचलित हुआ कि आँखें भीग गईं। कुछ देर वही खड़े होकर हमनें उस भव्य अतीत को याद किया जिसका महात्म्य स्कंदपुराण में ब्रह्मर्षि अगस्त्य की जिज्ञासा से प्रकट हुआ है 
"स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्। ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥" 
महर्षि अगस्त्य ने कहा, हे स्कंद जी! अब आप कृपया ज्ञानोद तीर्थ का महात्म्य कहिए।ज्ञानवापी की ऐसी  प्रशस्ति है जो कि स्वर्ग लोक में निवास करने वाले देवों को भी दुर्लभ है।
- - - -परंतु हमें  तो ज्ञानवापी तीर्थ के स्थान पर ऐसा क्षेत्र दिखाई दे रहा था जहां हमारा जाना वर्जित था।
विदेश से आई मेरी पोती जिसे मैं मंदिर का महत्व और गलियारे में कलात्मकता से उकेरी गई स्कंद पुराण की कथाएं सुना चुकी थी। उसनें मुझसे कहा कि दादी मां हम वहां क्यों नहीं जा रहे। हमनें उसे बताया कि वो अब मस्जिद है इसलिए हमें जाने की आज्ञा नहीं है। इसके उत्तर में उसका " पर क्यों नहीं जा सकते वो तीर्थ भी तो है।" हमें निरुत्तर कर गया। उसने हमसे दिल्ली लौटकर स्कंदपुराण सुनाने का आग्रह किया। हम उसे समयाभाव के कारण नहीं सुना पाए। परंतु---- 
अब जब ज्ञानवापी चर्चा में आई तो हमनें फिर से   गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित स्कंदपुराण के साथ - साथ  संस्कृति संस्थान बरेली द्वारा सन् १९७० में प्रकाशित, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा संपादित, स्कंदपुराण को पढ़ा। अठारह पुराणों में सबसे महत्वपूर्ण और वृहद आकार वाले 
स्कंदपुराण को कथित रूप में एक शतकोटि पुराण कहते हैं।
वर्तमान शोधकार्यों एवं पुरातात्विक खोजों 
में जब द्वापर युग का समय ईसा से लगभग ४००० वर्ष पूर्व का घोषित कर दिया है तो वेदव्यास का समय भी ईसा पूर्व का है इसमें संशय नहीं होना चाहिए। स्कंद पुराण के पुनर्लेखन के साथ महर्षि वेदव्यास जी ने भी काशी में विश्वेश्वर लिंग की पूजा की थी अर्थात वेदव्यासजी के काल में भी ज्ञानवापी यथावत् थी इसकी घोषणा करते हुए उन्होंने उसके समक्ष भगवान् की प्रसन्नता के लिये भजन, कीर्तन, नृत्य आदि भी किया है।महर्षि वेदव्यासजी ने स्वयं उसका वर्णन स्कन्दपुराण में किया है - 
व्यासो विश्वेशभवनं समायातः सुहृष्टवत्।
ज्ञानवापीपुरोभागे महाभागवतैः सह॥
विराजमानसत्कण्ठस्तुलसीवरदामभिः।
स्वयं तालधरो जातः स्वयं जातः सुनर्तकः॥
वेणुवादनतत्त्वज्ञः स्वयं श्रुतिधरोऽभवत्।
नृत्यं परिसमाप्येत्थं व्यासः सत्यवतीसुतः॥
देश-विदेश के लेखकों, यात्रियों के लिखित प्रमाण व साक्ष्य तो अनेक हैं परंतु मैने केवल स्कंदपुराण में वर्णित ज्ञानवापी के महात्म्य को समझने का प्रयास किया। मैं संस्कृत भाषा की जानकर नहीं हूं इसलिए विद्वत- जनों द्वारा परिभाषित अर्थ को अपने दृष्टिकोण से समझ कर, कुछ अंशों को लिखने का प्रयास कर रही हूँ। 
स्कंदपुराण के काशीखंड में ज्ञानवापी के महात्म्य को समस्त भारत की वंदनीय ब्रह्मर्षि अगस्त्य और शिव पार्वती पुत्र कार्तिकेय अर्थात भगवान स्कंद के मध्य हुए संवाद के माध्यम से महर्षि व्यास नें सबके सम्मुख रखा है। भगवान् ईशान रुद्र के द्वारा धरती पर जलाभाव की स्थिति से व्यथित होकर अपने त्रिशूल से ज्ञानवापी का निर्माण करके किये गये भगवान विश्वेश्वर के सहस्रधारार्चन व वर प्राप्ति का दृष्टान्त, लोक कल्याण   परोपकार व आध्यात्मिक आनंद के समेकित भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। 
अगस्त्य उवाच :
स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्।
ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥१
महर्षि अगस्त्य ने कहा, हे स्कंद जी! अब आप कृपया ज्ञानोद तीर्थ का महात्म्य कहिए।ज्ञानवापी की ऐसी  प्रशस्ति है जो कि स्वर्ग लोक में निवास करने वाले देवों को भी दुर्लभ है।
स्कंद उवाच :
घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम्।
ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना॥२
अनादिसिद्धे संसारे पुरा देवयुगे मुने।
प्राप्तः कुतश्चिदीशानश्चरन्स्वैरमितस्ततः॥३
न वर्षन्ति यदाभ्राणि न प्रावर्तन्त निम्नगाः।
जलाभिलाषो न यदा स्नानपानादि कर्मणि॥४
क्षारस्वादूदयोरेव यदासीज्जलदर्शनम्।
पृथिव्यां नरसञ्चारे वर्त्तमाने क्वचित्क्वचित्॥५
निर्वाणकमलाक्षेत्रं श्रीमदानन्दकाननम्।
महाश्मशानं सर्वेषां बीजानां परमूषरम्॥६
महाशयनसुप्तानां जन्तूनां प्रतिबोधकम्।
संसारसागरावर्तपतज्जन्तुतरण्डकम्॥७
महर्षि अगस्त्य के प्रश्नों के उत्तर में श्री स्कंद भगवान ने कहा - हे घटोद्भव, आपकी प्रज्ञा तो बहुत ही अधिक है। अब मेरे द्वारा वर्णित इस पापों को हटाने वाली ज्ञानवापी के महात्म्य का श्रवण कीजिए। 
हे मुने! इस अनादि संसार में , पूर्व देव युग में, इधर-उधर संचरण करते हुए भगवान शंभू जिस समय यहां आए। उस समय मेघ नहीं बरस रहे थे। नदियां जल वहन नहीं कर रही थी और जिस काल में स्नान-पान आदि कर्मों के लिए जल की अभिलाषा नहीं थी। उस समय खारे स्वाद वाले जल का ही दर्शन था। पृथ्वी में कहीं कहीं पर मनुष्यों के संचार में ऐसी ही दशा विद्यमान थी। कमला का क्षेत्र श्रीमान आनंद कानन,महाश्मशान, सब बीजों का परम ऊसर क्षेत्र बन रहा था। घोर निद्रा में सुप्त हुए जंतुओं को जागृत करने के लिए, संसार सागर के आवर्त में पड़े हुए जंतुओं का तरंडक यह क्षेत्र था। 
यातायातातिसङ्खिन्न जन्तुविश्राममण्डपम्।
अनेकजन्मगुणितकर्मसूत्रच्छिदाक्षुरम्॥८
सच्चिदानन्दनिलयं परब्रह्मरसायनम्।
सुखसन्तानजनकं मोक्षसाधनसिद्धिदम्॥९
प्रविश्य क्षेत्रमेतत्स ईशानो जटिलस्तदा।
लसत्त्रिशूल विमल रश्मिजालसमाकुलः॥१०
आलुलोकेमहालिंग वैकुण्ठ परमेष्ठिनो। 
महाहमहाकियां प्रादुरासयदादितः।। ११
ज्योतिर्मयीभिर्मालाभिः परितःपरिवेष्ठितम्
वृन्दैवृन्वारकर्पीणां गर्णानांच निरंतरम् ।। १२
इस संसार में गमनागमन से खिन्न हुए जंतुओं का विश्राम मंडप , अनेक जन्मों से संचित किए हुए कर्मों के उच्छेद करने वाले छुरे के सामान, सत, चित और आनंद का निलय, परब्रह्म का रसायन स्वरूप, सुख और संतति का जनक और मोक्ष के साधन को सिद्धि प्रदान करने वाला यह क्षेत्र है। जटाजूट धारण किए हुए, हाथ में विमल किरणों के जाल से समाकुल शोभित त्रिशूल लिए ईशान ने  जब इस क्षेत्र में प्रवेश किया तब उस आदि समय में बैकुंठ परमेष्ठियों में यहां महालिंग का साकार स्वरूप देख कर 'मैं सर्वप्रथम आगे आकर दर्शन करूं' यह भाव प्रादुर्भूत हो चुका था। उस समय यह महालिंग सभी ओर से ज्योतिर्मयी मालाओं से परिवेष्ठित था। देवों और ऋषियो एवं गणों के समूह निरंतर  इसकी अर्चना कर रहे थे। 
- - - - -इसी वर्णन में आगे बताया गया है कि ईशान नें देखा कि महालिंग सिद्ध योगियों द्वारा पूजित हो रहा है । गंधर्व उनकी स्तुति गायन से कर रहे थे। अप्सराओं द्वारा उनके श्रृंगार , नागवंशियों द्वारा मणिदीपों से आरती आदि से पूजा-अर्चना हो रही है। विद्याधर और किन्नरियों के द्वारा उस महालिंग का अलंकरण और मंडन किया जा रहा था देवांगनाएं चमर डुला रही थीं। 
अस्येशानस्य तल्लिङ्गं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा।
स्नपयामि महल्लिङ्गं कलशैः शीतलैर्जलैः॥१६
चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकण्ठतः।
कुण्डं प्रचण्डवेगेन रुद्रो रुद्रवपुर्धरः॥१७
पृथिव्यावरणाम्भांसि निष्क्रान्तानि तदा मुने।
भूप्रमाणाद्दशगुणैर्यैरियं वसुधावृता॥१८
तैर्जलैः स्नापयाञ्चक्रे त्वत्स्पृष्टैरन्यदेहिभिः।
तुषारैर्जाड्यविधुरैर्जञ्जपूकौघहारिभिः॥१९
सन्मनोभिरिवात्यच्छैरनच्छैर्व्योमवर्त्मवत्।
ज्योत्स्नावदुज्ज्वलच्छायैः पावनैः शम्भुनामवत् ।। २०
पीयूषवत्स्वादुतरैः सुखस्पर्शैर्गवाङ्गगवत्।
निष्पापधीवद्गम्भीरैस्तरलैः पापिशर्मवत्॥२१
विजिताब्जमहागन्धैः पाटलामोदमोदिभिः।
अदृष्टपूर्वलोकानां मनोनयनहारिभिः॥२२
इस समय ईशान कोण के अधिपति ईशान नामक रुद्र, स्वेच्छा से विचरण करते हुए यहां आ गए। यहां आकर उन्होंने भगवान शिव के प्रतीक ज्योतिर्मय लिंग का दर्शन किया। जो सब ओर से प्रकाश पुंज द्वारा व्याप्त था। देवता, ऋषि, सिद्ध और योगियों के समुदाय निरंतर उसकी आराधना में संलग्न थे। उसे देखकर ईशान के मन में यह इच्छा हुई कि मैं शीतल जल से भरे हुए कलशों द्वारा इस महालिंग का जलाभिषेक करूं। तब उन्होंने विश्वेश्वर लिंग से दक्षिण की ओर थोड़ी ही दूर पर त्रिशूल से वेग पूर्वक एक कुंड खोदा। उस समय उस कुंड से पृथ्वी का आवरण रूप जल, जो पृथ्वी द्वारा ढका हुआ था वो प्रकट हो गया।। हे मुने! उस समय पृथ्वी के आवरण से जो जलराशि निकली वह वसुधा भू प्रमाण से दस गुणा अधिक जल से समावृत हो गई । पापों के समूहों का हरण करने वाले, अन्य देहधारियों के स्पर्श से रहित, शीतल और जड़ता विहीन जल से उनको स्नान कराया । यह जल सत पुरुषों की भांति स्वच्छ था। व्योम मार्ग के समान निर्मल था। चांदनी के समान अत्यंत उज्जवल कांति वाला वह जल अत्यंत शीतल, ज्ञान स्वरूप एवं पाप- पुण्य का नाश करने वाला था। सिद्धों, महात्माओं के हृदय की भांति स्वच्छ और  भगवान शिव के नाम की भांति पवित्र था। वह जल अमृत के समान स्वादिष्ट, पापहीन और अगाध था। कमल की महान सुगंध और पाटल पुष्प सी प्रसन्नता देने वाला ऐसा मनोहारी और नयनाभिराम जल इससे पहले किसी ने नहीं देखा था।
अज्ञानता से संतप्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाले अमृत के समतुल्य ज्ञानवापी -जल के अद्वितीय गुणों का बखान कर स्कंद भगवान नें महर्षि अगस्त्य से आगे कहा -- - - 
सहस्रधारैः कलशैः स ईशानोघटोद्भव।
सहस्रकृत्वः स्नपयामास संहृष्टमानसः॥२६
ततः प्रसन्नो भगवान्विश्वात्मा विश्वलोचनः।
तमुवाच तदेशानं रुद्रं रुद्रवपुर्धरम्॥२७
तव प्रसन्नोस्मीशान कर्मणानेन सुव्रत।
गुरुणानन्यपूर्वेण ममातिप्रीतिकारिणा॥२८
ततस्त्वं जटिलेशान वरं ब्रूहि तपोधन।
अदेयं न तवास्त्यद्य महोद्यमपरायण॥२९
अमृत के समान स्वाद वाला अज्ञानता से संतप्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाले इस जल के महात्म्य को बताकर  स्कंद भगवान नें महर्षि अगस्त्य से कहा कि हे घटोद्भव! ईशान नें हर्षित मन से सहस्त्रधारा वाले कलश के द्वारा भगवान शंभू का सहस्त्र बार जलाभिषेक किया। इससे भगवान जो विश्वलोचन और विश्वात्मा हैं वे अत्यंत प्रसन्न हुए। रूद्र के वपु को धारण करने वाले रूद्र ईशान से बोले मैं आपसे प्रसन्न हूं। हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले आपके इस कर्म से मुझे बड़ा संतोष हुआ है। यह आपका महान कर्म अत्यंत प्रीतिकारक है। इससे पूर्व किसी ने ऐसा उद्यम नहीं किया। जटाधारी महादेव नें कहा  महान तपोधन वर मांगो आज इस समय मैं आपसे इतना प्रसन्न हूं कि कुछ भी अदेय नहीं है। 
ईशान उवाच
यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि।
तदेतदतुलं तीर्थं तव नाम्नास्तु शङ्कर॥
ईशान ने कहा कि देवेश यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं।यदि मैं वरदान  के योग्य पात्र बन गया हूं तो हे शंकर, आप अपने ही शुभ नाम का एक अनुपम तीर्थ प्रदान कीजिए। 
विश्वेश्वर उवाच
त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवः स्वः स्थितान्यपि।
तेभ्योऽखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम्॥
शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः।
तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात्॥
अतो ज्ञानोद नामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत्।
स्पर्शनाचमनाभ्याञ्च राजसूयाश्वमेधयोः॥
फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा सन्तर्प्य च पितामहान्।
यत्फलं समवाप्नोति तदत्र श्राद्धकर्मणा॥३५
विश्वेश्वर ने कहा कि इस त्रिलोकी में जो भी   (भूः) प्राणों से प्रिय, (भुवः) दुख विनाशक और (स्वः) सुख प्रदान करने वाले तीर्थ हैं
उन समस्त तीर्थों में यह शिव-तीर्थ परम शिरोमणि तीर्थ होगा। शिव शब्द के अर्थ के चिंतन करने वाले लोग शिव को ही "ज्ञान" कहा करते हैं। वही ज्ञान, द्रव्य अर्थात तरल होकर जल रूप में अविर्भूत होकर, महिमावान हो गया है अतएव यह तीर्थ "ज्ञानोद" नाम से ही त्रैलोक्य में प्रसिद्ध होगा। इसके स्पर्श मात्र से ही समस्त प्रकार की और पापों से मुक्त हो जाएगा इस ज्ञानोद तीर्थ जल के स्पर्श मात्र से ही मानव अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त कर लेगा। इसके स्पर्श और आचमन से राजसूय यज्ञ अश्वमेध दोनों का फल प्राप्त करेंगे। गया में फल्गु तीर्थ में, स्नान करके व अपने पितरों का भली-भांति तर्पण करके जो पुण्य फल प्राप्त किया जाता है वह यहां पर श्राद्ध कर्म करने से प्राप्त हो जाएगा । 
स्कंद भगवान द्वारा स्वयंभू लिंग और ज्ञानवापी के महात्म्य का विस्तृत वर्णन इन श्लोकों में किया गया है :----
आकाशात्तारकाल्लिङ्गं ज्योतीरूपमिहागतम्।
ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिङ्गं तारकेश्वरम्॥
तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिङ्गस्य समर्चनात्।
ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च॥
कृतसन्ध्यादिनियमः परितर्प्य पितामहान्।
धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिङ्गविलोकनम्॥
मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम्।
प्रान्ते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते॥
अर्थात आकाशमण्डल से जो मुक्ति प्रदायी लक्षणों वाला ज्योति स्वरूप लिंग धरती पर आया ,वह ज्ञानवापी के सामने वाले भाग में है। इस महालिंग की पूजा करने से व्यक्ति को मुक्ति देने वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानवापी में स्नान, तारकेश्वर भगवान् का दर्शन, सन्ध्या आदि नियमों, पूर्वजों का तर्पण करके मौनव्रत को धारण करने वाला प्रबुद्ध जन, विश्वेश्वरलिंग के दर्शन मात्र से ही सभी पापों से मुक्त होकर शाश्वत पुण्य को प्राप्त करता है। अन्त में इस उद्धारक ज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है।
वर्तमान में विभिन्न ग्रंथों शिलालेखों ताम्रपत्रों, मुद्राओं, यात्रा वृतांतों और पुरातात्विक साक्ष्यों आदि के आधार पर काशी नगरी का अस्तित्व धरती पर विश्व की सबसे पुरानी नगरी के रूप में माना जाता है। इस पावन नगरी का इतिहास लगभग ११ हज़ार ईसा पूर्व से अब तक अबाध रूप में मिलता है। इस इतिहास के साथ जुड़ा है शिव का अविमुक्त क्षेत्र अर्थात उनका घर । यही स्थान काशी विश्वनाथ और ज्ञानवापी को भी अपने में समेटे हुए है। 
मैंने जिस स्कंदपुराण का आश्रय लिया उसमें जिनका संवाद ज्ञानवापी का परिचय देता है उन ब्रह्मर्षि अगस्त्य का कालखंड भी लगभग दस से नौं सहस्र वर्ष ई.पू. माना गया है। 
ईसा पूर्व की यह परंपरा राजा दिवोदास से लेकर धनवंतरी, नवी दसवीं शताब्दी ई.पू . की राजघाट की अविमुक्तेश्वर की प्राप्त मुद्रा
से वर्तमान समय की उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटिश शासन काल के अनेक प्रमाणों तक अविच्छिन्न रही है।
उन्नीसवीं शती के अनेक साक्ष्यों में से हम केवल मिशनरी बन कर आए अंग्रेज़ों के ज्ञानवापी के विषय में लिखे विचारों को ले रहे हैं। 
रेजिनाल्ड हेबेर,(Reginald Heber)जो १८२३ में कलकत्ता के बिशप नियुक्त हुए थे वे सन् १८२४ में काशी आए। उन्होंने लिखा - "ज्ञानवापी को हिंदु गंगा से अधिक पवित्र मानते है।" 
एडविन ग्रीव्स(Edwin Greaves) ब्रिटिश मिशनरी नें १९०९ में काशी विषयक पुस्तक में लिखा  - "ज्ञानवापी के चारों ओर पत्थर की जाली के पास हिंदू पुजारी बैठता है। भक्त कूप के पास आते हैं और पुजारी से पवित्र जल ग्रहण करते हैं। " हम पुराने चित्रों में भी इसे देख सकते हैं। 
मैं मानती हूं कि वास्तव में काशी के परम पुनीत ज्ञानवापी तीर्थ को प्रश्नों के घेरे में रखने के स्थान पर हमें यह समझना होगा कि ज्ञानवापी हम सब भारतीयों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्मिता से जुड़ी ऐसी धरोहर है जिसको संरक्षित और सुरक्षित रखना हमारा सामूहिक दायित्व है। 

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