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मंगलवार, 31 मई 2022

🌳एक अक्षयवट यह भी !!


जेष्ठ माह की अमावस्या, भारतीय संस्कृति के वट-सावित्री व्रत की पावनता की कथा कहती है। इस कथा में वटवृक्ष के महत्व की जानकारी इसके नाम से ही मिल जाती है। भगवान विष्णु को बाल रूप में वट पत्रशायी कहा गया है। 
भारतीय संस्कृति को आरण्यक संस्कृति इसलिए कहा जाता है क्योंकि हमारे पूर्वज इस सत्य को जानते थे कि हमारी पृथ्वी का अस्तित्व इसकी पर्यावरण की समृद्धि पर टिका हुआ है और इस समृद्धि का प्राण तत्व है प्रकृति। प्रकृति में वनों अर्थात अरण्यों की भूमिका सर्वाधिक है। 
पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हमारे पूर्वजों अर्थात ऋषियों ने अपनी तपस्थली, आवास और आश्रमों में पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने वाले दीर्घजीवी एवं स्वास्थ्य के लिए उपयोगी वृक्षों को लगाया और उनके महत्व को देखते हुए उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए उन्हें पूजनीय भी बनाया। पुरातन काल से हम वृक्षों का देवता के समान पूजन करते आए हैं। हमारे ऋषि-मुनियों एवं पूर्वजों नें प्रायः प्रत्येक कार्य के श्रीगणेश से  पूर्व प्रकृति को पूजने की परंपरा को जीवन का अभिन्न अंग बनाया।वृक्ष हमारी प्रार्थनाओं में हैं -
"अश्वत्थो वटवृक्ष चन्दन तरुर्मन्दार कल्पौद्रुमौ।
जम्बू-निम्ब-कदम्ब आम्र सरला वृक्षाश्च से क्षीरिणः।।" 
भारत की चिरंतन संस्कृति से पल्लवित हुए सनातन धर्म में वृक्षों को देवताओं का निवास स्थान माना है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष
को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है -" सर्वकाम फलाः वृक्षा।" 
पद्य पुराण में भगवान विष्णु को अश्वत्थ रूप, वट को रूद्र रूप और पलाश
को ब्रह्म रूप बताया गया है - अश्वत्थ रूपी भगवान विष्णुरेव न संशयः। रूद्ररूपी वटस्तदूत पालाशो ब्रह्मरूपधृक। " महाभारत एवं रामायण में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है -" सर्वकाम फलाः वृक्षा।" वाराह पुराण में उल्लेख किया गया है कि जो पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी के दो, आम के पाँच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी भी नारकीय पीड़ा को नहीं भोगता है और न ही नरक-यात्रा करता है। "अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दशपुष्पजातीः।
द्वे द्वे तथा दाऽममातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।" वट, पीपल,आँवला, बेल, कदली, पदम वृक्ष तथा परिजात को देव वृक्ष माना गया है। भारतीय संस्कृति से धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का अत्यधिक महत्व है। वेदों एवं उपनिषदों में वृक्षों के महत्व को विस्तार से समझाया गया है। प्राणीजगत के स्वास्थ्य में उनके औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों का अनुसंधान व प्रयोग किया गया है। वास्तव में वृक्षों की अर्चना, वंदना एवं प्रार्थना के पीछे कोई कर्मकाण्ड नहीं है। इनके पीछे मानवोपयोगी वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। स्वास्थ्य एवं आयुर्वेद की दृष्टि में उपयोगी तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण ज्ञान को धार्मिक आस्था के रूप में परिवर्द्धित किया गया। पृथ्वी सूक्त में लिखा है कि वन तथा वृक्ष वर्षा लाते हैं। मिट्टी को बहाने से बचाते हैं साथ ही बाढ़ तथा सूखे को रोकते हैं तथा दूषित गैसों को स्वयं पी जाते हैं।
भारत को राष्ट्र का रूप देने वाले हमारे ऋषियों नें वृक्षों के वैज्ञानिक परीक्षणों में सिद्ध किया कि वृक्षों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है वटवृक्ष। वट वृक्ष को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन तीर्थंकर ऋषभ देव को वट वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः जैन धर्म में इसे केवली वृक्ष कहा जाता है। 
प्राचीन संस्कृत-साहित्य में वृक्षों का एक नाम यक्षावास भी आता है। वटवृक्ष का यक्षों से संबंध माना जाता है। भांडीर यक्ष का भांडीरवन ब्रज की चौरासी कोसी परिक्रमा में तीर्थ के रुप में माना जाता है।
 वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। वट वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव रहते हैं। अर्थात पवित्र वट यानी बरगद के वृक्ष में सृष्टि के सृजन, पालन और संहार करने वाले त्रिदेवों की दिव्य ऊर्जा का अक्षय भंडार उपलब्ध होता है। प्राचीन ग्रंथ वृक्षायुर्वेद में वर्णन मिलता है कि जो यथोचित रूप से बरगद के वृक्ष लगाता है, वह अंत में शिव धाम को प्राप्त होता है। वास्तव में इस वृक्ष का जितना महत्व शास्त्रीय दृष्टि से है 
 उतना ही लोक चेतना की दृष्टि से भी है। यही कारण है कि देवत्व से परिपूर्ण वटवृक्ष के नीचे 'सावित्री' ने मृत्यु को जीतकर 'सत्यवान' का पुनर्जीवन, सास-ससुर की नेत्रज्योति, संतति एवं राज्य वैभव प्राप्त किया था। हिंदू महिलाएं आज भी ज्येष्ठ मास की अमावस्या (बड़मावस अथवा वट-सावित्री व्रत) के अवसर पर दीवार पर हल्दी-चावल के रेखांकन (ऐपन) से वटवृक्ष का चित्र बनाकर अथवा उसकी टहनी लाकर सौभाग्यवती  महिलाएं सुख-सौभाग्य की वृद्धि के लिए वट की पूजा करती हैं। जहां वट-वृक्ष उपलब्ध होता है वहां सुहागनें पेड़ के तने पर कच्चा सूत लपेटकर एक सौ आठ परिक्रमा करती हैं। 
ब्रज की लोकपरंपरा में गीत गाया जाता है कि-
वृंदावन सो बन नहीं, नंद गाँव सो गाँव।
वंशीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम।
इसी वंशीवट के नीचे श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास किया था।जन मानस में अध्यात्म-विद्या के रुप में स्वीकार कर , आज भी रास नृत्य का आयोजन किया जाता है। भगवान बुद्ध के जीवन-प्रसंग में सुजाता की दासी ने गौतम बुद्ध को वृक्ष का देवता यक्ष समझकर खीर समर्पित की थी। ब्रज के 'भांडीर वन' में भांडीर यज्ञ का 'भांडीर वट' प्रसिद्ध है।
'करवा चौथ' के व्रत में दीवार पर वट को रेखांकित किया जाता है,क्योंकि सात भाइयों ने बरगद के पेड़ पर चढ़कर ही बहन को दीपक दिखा कर चंद्रमाँ के निकलने का भ्रम पैदा किया था। 
भारतीय मान्यताओं में आदिगुरु भगवान शिव वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या के साथ-साथ दक्षिण मूर्ति स्वरूप में सप्तऋषियों को ज्ञान दिया। अत: इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होने का विश्वास आज भी है। श्रीमद्भागवत में वट को 'महायोगमय तथा मुमुक्षुओं का आश्रयभूत' कहा गया है।इस प्रकार ' शास्त्र ' और 'लोक' दोनों में वट की महिमा प्राचीन काल से प्रतिष्ठित है।
वेदों एवं उपनिषदों में वन से उपवन तक की यात्रा एक अत्यन्त ही रोचक विषय है। जो स्वास्थ्य- में औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों के रूप में प्रयोग किया गया है
वटवृक्ष भीषण गर्मी में राहत प्रदान करता है। अपनी शाखाओं के माध्यम से बरगद का पेड़ धरती की श्वसन क्रिया को उचित ढंग से संचालित करती हैं। इसकी रस्सी जैसी टहनियाँ चर्मरोग, आँख के रोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। 
साथ ही वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी रस्सी जैसी आकाशीय जड़ें चर्मरोग, आँखरोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। इसके सभी हिस्से कसैले, मधुर, शीतल तथा आंतों का संकुचन करने वाले होते हैं। इसका उपयोग खासतौर पर कफ, पित्त आदि विकार को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा वमन, ज्वर, मूर्च्छा आदि में भी इसका प्रयोग लाभदायक है। इससे कांति में वृद्धि होती है।
कहा जाता है वट वृक्ष के छाल और पत्तों से औषधियां भी बनाई जाती हैं।
वृक्षों में वट-वृक्ष की सबसे ज्यादा आयु होती है. इसकी लंबी उम्र, शक्ति, और आध्यात्मिक महत्व पर्यावरण के लिए भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होने के कारण वट-वृक्ष की पूजा की जाती है। 
वटवृक्ष को बरगद और बड़ भी कहते हैं। दिल्ली में हम वटवृक्षों को बचपन से ही देखते आए हैं। इसकी जटाओं के कारण हम इसे वट दादा ही पुकारते आए हैं। 
वास्तव में  वटवृक्ष को देखने से पहले मैंने जिन वृक्षों को सदा से देखा था वे चाहे पर्वतों की ऊँचाईयों पर हों या मैदानों की समतल धरती पर। वे सभी आमतौर पर जड़ों से जुड़कर वृक्ष के तने से जुड़ी हरी-भरी फूलों- फलों से लदी डालियों के कारण अपना सौंदर्य पाते हैं। पंछियों एवं अन्य जीवों की चहल-पहल से पेड़ों को जीवंत बनाने वाली उनकी 'डालियां',  स्वयं तब तक जीवित रहती हैं जब तक वे जड़ों से जीवन पाते तने से जुड़ी होती हैं। जैसे ही वे किसी भी कारणवश मुख्य तने से अलग हो जाती हैं तो उनका सारा जीवन रस सूख जाता है। वे सूखी हुई डालियां प्रायः जलने और जलाने के ही काम में आती हैं। 
'वटवृक्ष' का सत्य अन्य पेड़ों से बिल्कुल अलग है। इसकी हर डाली अपनी आकाशीय शाखाओं को भूमि के अंदर मूल जड़ों की भांति फैल कर , अपने अस्तित्व को पुनर्जीवित कर देती है। यही कारण है कि भारत के अक्षय वटों के प्रति भारतीयों की आस्था के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने उन्हें नष्ट करने के कई प्रयास किए जड़ों को जलाया भी, परंतु वे आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। 
भारत के प्रसिद्ध अक्षयवटों का वर्णन का वर्णन "तीर्थ दीपिका" में है - 
" वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
अधिकांश भारतीय अपने पौराणिक ग्रंथों में और लोक साहित्य व परंपराओं के कारण इन अक्षयवटों से परिचित हैं। वृंदावन का वंशीवट, उज्जैन का सिद्धवट, प्रयागराज का अक्षयवट ,गया तीर्थ का गयावट और पंचवटी में माता सीता की पर्णकुटी के बाहर लगे पांच वट वृक्षों का वर्णन हम सब निरंतर सुनते आए हैं।। 
मेरी स्मृतियों में आज वह वटवृक्ष उभर रहा है जिसका वर्णन तीर्थ दीपिका में तो नहीं है परंतु पुराणों जिसका महत्व मेरी दृष्टि में इसलिए अग्रगण्य है क्योंकि यह है पुरायुग के  पावन स्थल नैमिषारण्य का वह वटवृक्ष जिसके नीचे बैठकर, अपनी लेखनी के प्रभाव श्री कृष्ण द्वैपायन, महर्षि वेदव्यास बन गए। मैनें वेदव्यास जी रचित स्कंदपुराण में ही सावित्री के अप्रतिम व्यक्तित्व का वर्णन पढ़ा। 
नैमिषारण्य , लखनऊ से ८० किमी दूर लखनऊ क्षेत्र के अर्न्तगत सीतापुर जिला में गोमती नदी के बाएँ तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। नैमिषारण्य सीतापुर स्टेशन से लगभग एक मील की दूरी पर चक्रतीर्थ स्थित है। यहां चक्रतीर्थ, व्यास गद्दी, मनु-शतरूपा की तपोभूमि और हनुमान गढ़ी, भगवान ब्रह्मा, शिव, विष्णु, देवी सती, माँ ललिता के मंदिर, चक्रतीर्थ, हनुमान गढ़ी , व्यास गद्दी, रुद्रावर्त धाम, दधीचि कुंड आदि पवित्र धामों नें नैमिषारण्य तीर्थ की महिमा को बढ़ाया है। 
 "नैमिषारण्य" की पावन भूमि भारतीय संस्कृति की अनूठी परंपरा---- "ज्ञान-सत्रों "की, लंबी सूची को अपने अँचल में समेटे हुए है! मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इस स्थान का उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपःस्थली के रूप में आया है। वायु पुराण के माघ माहात्म्य तथा बृहद्धर्मपुराण, पूर्व-भाग के अनुसार इसके किसी गुप्त स्थल में आज भी ऋषियों के स्वाध्याय का अनुष्ठान चल रहा है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनायी थीं। 
शौनकजी को इसी तीर्थ में सूतजी ने अठारह पुराणों की कथा सुनायी। पुरायुगीन इस अरण्य तीर्थ को धरती का केन्द्र माना जाता है। आज बेशक यहां हमें वन प्रदेश तो नहीं मिला परंतु एक पुराना वटवृक्ष उस युग की परंपराओं को, गाथाओं को सहेज कर वर्तमान तक ले आया है।  नैमिषारण्य में ही वेदव्यास जी नें वटवृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी। इसी वटवृक्ष के नीचे बनी है- व्यास गद्दी। यहीं बैठकर व्यासजी ने चारों वेदों का वर्गीकरण का कार्य संपादित किया था। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिनी, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। महर्षि व्यास ने शास्त्रों को छह भागों में विभक्त कर अठारह पुराणों में बांटने का काम इसी नैमिषारण्य के वटवृक्ष के नीचे बैठकर किया था।
महर्षि वेदव्यास ने यहीं महाभारत की रचना की थी। शुकदेव जी ने यहीं राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई थी। यह भी माना जाता है कि वेदव्यास ने घर-घर में सुनी जाने वाली सत्यनारायण कथा की रचना भी यहीं की थी। महर्षि वेदव्यास जी की अद्वितीय प्रज्ञा का साक्षी नैमिषारण्य के वटवृक्ष को मैं अपने स्तर पर वेदव्यास अक्षयवट कहती हूँ क्योंकि इसके हरे वितान के नीचे नीचे खड़े होकर मैंने आरण्यक संस्कृति वाली भारतीयता के स्पंदन को अनुभव किया है! अपने अप्रतिम पूर्वज ऋषियों की वाणी को अदृश्यता में भी सुना है! इस अक्षयवट की प्रत्येक स्वतंत्र आकाशीय शाखा नें ज्ञानसत्रों के जीवन रस को सहेजा है।  के संदर्भ में भी मुझे इसी वट- वृक्षीय एकात्मता का इतिहास अपने वैदिक और पौराणिक साहित्य में सर्वत्र दिखाई देता है।
मैं मानती हूं  कि भारतीय संस्कृति के अनेक युगों को एक सूत्र में जोड़ते " नैमिषारण्य " की यात्रा सबको नए दृष्टिकोण प्रदान करने वाला स्थान है। और यहाँ के "वेदव्यास अक्षय वट" की परिक्रमा कई युगों की थाती के अनूठे स्पर्श के रोमांच से भरने वाली है
इसलिए यहाँ सबको एक बार तो अवश्य ही आना चाहिए।

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