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सोमवार, 25 जुलाई 2022

विरह का सुल्तान :शिव कुमार बटालवी !!

“आज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा फूल सा है खिला आज दिन” लिखने वाले शिव कुमार बटालवी "विरह के सुल्तान " कहे जाते हैं। हमारे पिताजी उनको आज के युवा वारिस शाह कहते थे। 
"मैं इक शिकरा यार बणाया
चूरी कुट्टा ता ओ खांदा नाहीं वे
असा दिल दा मांस खवाया
इक्क उड़ारी ऐसी मारी
ओ मुड़ वतनी न आया।ओ माए नी माए! 
मैं इक शिकरा यार बणाया !!"
" की पुछदे ओ हाल फकीरां दा
साडा नदियों विछड़े नीरां दा
साडा हंज दी जूने आयां दा
साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा! "
 उनकी कविताओं में प्रियतम की निष्ठुरता, विरह, मृत्यु, प्रेम, करुणा की गहन अनुभूतियों के साथ-साथ गांव की मिट्टी की महक, परंपराओं के स्वर सुनाई देते हैं। इन सब की सौंधी मिट्टी सी सुगंध नें शिव कुमार बटालवी के प्रति मेरे भीतर गहरा लगाव भर दिया ।
 'बिरह के सुल्तान' शिव कुमार बटालवी जी की सशक्त लेखनी से मेरा परिचय "लूणां" के माध्यम से हुआ।
पूरन भगत के, पंजाब में प्रचलित परंपरागत कथानक के पात्रों को उनकी संवेदनशीलता ने अपने रंग में रंग कर नया स्वरूप प्रदान किया। चंबा (वर्तमान हिमाचल प्रदेश) के वन प्रांतर में सूत्रधार और नटी के बीच हुए संवादों से कथा का प्रारंभ होता है। चंबा के राजा वरमन अपने जन्मदिवस दिवस के उत्सव में सियालकोट (वर्तमान पंजाब, पाकिस्तान) के राजा सलवान को आमंत्रित करता है। चंबा की छोटी जाति की लूणा के सौंदर्यसंपन्न स्वरूप को देखकर राजा सलवान उससे विवाह कर लेता है। राजा सलवान के पुत्र के आयुवर्ग की इस युवती की मर्मांतक पीड़ा को शिव कुमार बटालवी ने पुरुष होते हुए भी जिस गहराई से अनुभव है उसी गहनता से लिखा भी। 
२८ वर्ष की अवस्था में वर्ष १९६५ में अपनी इसी अद्वितीय कृति "लूणा" के लिए शिव कुमार बटालवी को "साहित्य अकादमी पुरस्कार" मिला। उस समय साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम आयु के साहित्यकार थे। 
२३ जुलाई १९३६ को, बटालवी का जन्म सियालकोट (पाकिस्तान) के गांव बड़ा पिंड लोहतियां में हुआ था। देश के बंटवारे के समय बटालवी जी का परिवार पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत में पंजाब के गुरदासपुर जिले के बटाला में आ गया था।
बटाला के प्रति उनकी आत्मीयता का परिचय अपने नाम के साथ जोड़े गए बटालवी शब्द से वे स्वयं देते हैं। उनकी जीवन गाथा पीड़ा की निरंतरता की कहानी कहती है। कारण कई हैं - - - - 
"लोहे दे इस शहर विच पित्तल दे लोक रहन्दे
सिक्के दा बोल बोलण शीशे दा वेस पाउंदे " 
इस पीड़ा को झेलने वाले शिव कुमार बटालवी नें
💐 विरह का सुल्तान :शिव कुमार बटालवी जी ने अपने राम जी से पूछा - - - - 
तुसीं केहड़ी रुत्ते आए मेरे राम जी! 
जदों बाग़ीं फुल्ल कुमलाए मेरे राम जी !! 
किथे सउ जद जिन्द मजाजण
नां लै लै कुरलाई
उमर-चन्दोआ तान विचारी
ग़म दी बीड़ रखाई
किथे सउ जद वाक लैंद्यां
होंठ ना असां हिलाए
मेरे राम जीउ
हुन तां प्रभ जी ना तन आपणा
ते ना ही मन आपणा
बेहे फुल्ल दा पाप वडेरा
द्युते अग्गे रक्खणा
हुन तां प्रभ जी बहुं पुन्न होवे
जे जिद खाक हंढाए
मेरे राम जीउ ।
तुसीं केहड़ी रुत्ते आए
मेरे राम जीउ ।
जदों बाग़ीं फुल्ल कुमलाए
मेरे राम जीउ ।---- 
---- और अपने प्रभु जी से  "जिद खाक हंढाए" कहकर ७ मई १९७३ में सिर्फ ३६ वर्ष की अल्पायु में सिर्फ़ शहर नहीं दुनिया से भी विदा ले ली। 
 २४ वर्ष की आयु में शिव कुमार बटालवी की कविताओं का पहला संकलन "पीड़ां दा परागा" प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उन की प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं :---- "लाजवंती", "आटे दीयां चिड़ियां", "मैनूं विदा करो", "दर्दमन्दां दीआं आहीं", "मैं ते मैं" "आरती" और "बिरह दा सुल्तान"।
पीड़ां दा परागा पुस्तक में अपने जन्मदिन पर लिखी बटालवी जी की कविता है - - - - 
💐"आपनी सालगिरहा ते" 💐
बिरहन जिन्द मेरी नी सईओ
कोह इक होर मुकायआ नी ।
पक्का मील मौत दा नज़रीं
अजे वी पर ना आया नी ।
वर्हआं नाल उमर दा पाशा
खेडदिआं मेरी देही ने,
होर समें हत्थ साहवां दा
इक सन्दली नरद हरायआ नी ।
आतम-हत्त्या दे रथ उत्ते
जी करदै चढ़ जावां नी,
कायरता दे दम्मां दा
पर किथों दिआं किरायआ नी ।
अज्ज कबरां दी कल्लरी मिट्टी
ला मेरे मत्थे माए नीं
इस मिट्टड़ी 'चों मिट्ठड़ी मिट्ठड़ी
अज्ज ख़ुशबोई आए नी ।
ला ला लून खुआए दिल दे
डक्करे कर कर पीड़ां नूं
पर इक पीड़ वसल दी तां वी
भुक्खी मरदी जाए नी ।
सिदक दे कूले पिंडे 'ते
अज्ज पै गईआं इउं लाशां नी
ज्युं तेरे बग्गे वालीं कोई
काला नज़रीं आए नी ।
नी मेरे पिंड दीयो कुड़ीयो चिड़ीओ
आयो मैनूं दिओ दिलासा नी
पी चल्लिआ मैनूं घुट्ट-घुट्ट करके
ग़म दा मिरग प्यासा नी ।
हंझूआं दी अग्ग सेक सेक के
सड़ चल्लियां जे पलकां नी,
पर पीड़ां दे पोह दा अड़ीओ
घट्या सीत ना मासा नी ।
ताप त्रईए फ़िकरां दे नी
मार मुकाई जिन्दड़ी नी,
लूस ग्या हर हसरत मेरी
लग्ग्या हिजर चुमासा नी ।
पीड़ां पा पा पूर लिआ
मैं दिल दा खूह खारा नी ।
पर बदबखत ना सुक्क्या अत्थरा
इह करमां दा मारा नी ।
अद्धी रातीं उट्ठ उट्ठ रोवां
कर कर चेते मोयां नूं
मार दुहत्थड़ां पिट्टां जद मैं
टुट्ट जाए कोई तारा नी ।
दिल दे वेहड़े फूहड़ी पावां
यादां आउन मकाने नी,
रोज़ ग़मां दे सत्थर सौं सौं
जोड़ीं बह ग्या पारा नी ।
सईयो रुक्ख हयाती दे नूं
कीह पावां मैं पानी नी ।
स्युंक इश्क दी फोकी कर गई
इहदी हर इक टाहनी नी ।
यादां दा कर लोगड़ कोसा
की मैं करां टकोरां नी ।
पई बिरहों दी सोज कलेजे
मोयां बाझ ना जानी नी ।
डोल्हि इतर मेरी ज़ुलफ़ीं मैनूं
लै चल्ले कबरां वल्ले नी,
खौरे भूत भुताने ही बण
चम्बड़ जावन हानी नी ।
       *******
विरह के सुल्तान को श्रद्धाँजलि अर्पित करने के लिए मुझे उनके ही सुरीले, अंतरात्मा को झकझोरते सुरों की स्वराँजलि उपयुक्त लगती है क्योंकि अपने लिखे शब्दों की गहनता को लेखक का संवेदनशील स्वर, पाठक को श्रोता बनाकर और अधिक गहराई से समझा सकता है। 🙏 🌷🌷डॉ स्वर्ण अनिल ।

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