जाड़ों का मौसम

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शनिवार, 22 जुलाई 2023

भूदेवी की बेटी : रंगनायकी अंडाल ।


आलवार परंपरा में एक असाधारण प्रतिभा थी – साध्वी अंडाल। बारह संतों में अंडाल एक मात्र साध्वी थी । आठवें आलवार विष्णुचित्त की पालित पुत्री थी। विष्णुचित्त मदुरै के पास विलिपुत्तुर नाम के गाँव के रहने वाले थे । जिनका दैनिक कार्य भोर की वेला में फूल तोड़कर लाना और स्थानीय मंदिर में भगवान को अर्पित करना था।
एक दिन पंडित विष्णु चित्त अपने प्रातः कालीन दैनिक कार्य पर निकले तो उन्होंने देखा कि वाटिका में तुलसी के पौधे की छाया में एक नन्ही सी बालिका लेटी है । पंडित विष्णुचित्त नितांत अकेले थे । उन्हें लगा कि धरती माता ने यह नन्ही बच्ची एक पुत्री के रूप प्रदान की है । अतः उन्होने इस का नाम ‘गोदई’ अर्थात धरती माता की तरफ से भेंट रख दिया। (उनका जन्म विक्रम सं. ७७०में हुआ था।)
वे उसे अपने घर ले आए और उस का पालन पोषण किया । तुलसी वाटिका में प्राप्त होने के कारण इन्हें भूमिजा सीता का अवतार माना जाता है। वे बाद में अंडाल अथवा रंगनायिकी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई ।
 गोदई ईश्वर प्रेम और भक्ति के वातावरण में बड़ी हुई । पंडित विष्णु चित्त भी उस का पूरा ध्यान रखते । उसे भजन गायन सिखाते, भगवान कृष्ण की कथाएँ सुनाते, दर्शन और शास्त्रों की बातें करते और तमिल काव्य की जानकारी देते । भगवान के प्रति असीम भक्ति भाव का प्रत्यक्ष प्रभाव नन्ही गोदई पर बढ़ता ही गया । उसे अपने जीवन में भगवान के सिवाय कुछ और दिखाई नहीं देता था । उत्तर भारत की मीरा की तरह उसे लगता कि उस का जीवन केवल भगवान के लिए ही है । मीरा की तरह वे भी कृष्ण प्रेम में दीवानी हो गयी। उन्होंने कृष्ण को ही अपना पति मान कर अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर दिया । वे चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते । वह स्वयं को कृष्ण की भक्तिन, भार्या, दासी, प्रेमिका रूप में ही प्रदर्शित करती । यहाँ तक कि अपने पिता की भगवान पूजा के लिए बनाई हुई पुष्प माला को पहले वे स्वयं पहन कर देखती कि माला ठीक बनी है कि नहीं । यह उन्होने अपना एक नित्यक्रम बना लिया ।
रंगनाथ ने गोदा की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया। विष्णुचित्त को सपने में आदेश देकर गोदा को मंदिर में लेकर पहुंचने को कहा। जैसे ही पेरियार गोदा को लेकर मंदिर आए गर्भ गृह में प्रवेश करते ही गोदा श्री रंगनाथ की प्रतिमा में विलीन हो गई, तब से गोदा, आंडाल के नाम से प्रसिद्ध हुई । "आंडाल" का अर्थ है "जिसने भगवान को प्राप्त किया हो।" उस समय उनकी आयु मात्र पंद्रह वर्ष थी । अनेक दर्शकों के देखते-देखते भगवान के विग्रह में ज्योति बन विलीन होने की इस घटना से संबद्ध विवाहोत्सव अब भी प्रति वर्ष दक्षिण के मंदिरों में "श्री अंडाल थिरु कल्याणम", धनुर्मासम के भोगी पोंगल को मनाया जाता है।
वृंदावन स्थित श्री रंगनाथ भगवान के मंदिर में भी गोदाम्बा जी का उत्सव दस दिनों तक चलता है। इस उत्सव में इन १० दिनों में दिव्य प्रबंध जो आलवर दिव्य सूरी लोगों ने भगवान के मुखोल्लास के लिए रचना की है और जिसमें ४००० पद जिन्हें पासुर कहा जाता है, उसका पाठ होता है। तीसरे दिन गोदम्मा जी के द्वारा लिखे गए १४३ पासुरों का पाठ होता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवम् शुभ दिन माना जाता है, इसलिए खीर आदि का भोग लगता है।
आंडाल ने अल्पायु में ही दो ग्रंथों की रचना की जो भक्ति के श्रेष्ठ ग्रंथ माने जाते हैं।आंडाल की रचनाएँ तिरुप्पाबै और नाच्चियार तिरुमोषि बहुत प्रसिद्ध है। आंडाल की उपासना माधुर्य भाव की है। तिरूप्पावै – यह अति सुंदर ३०पदों का मुक्तक काव्य है। इसमें कृष्ण को प्राप्त करने के लिए कात्यायनी देवी की पूजा एवं व्रतानुष्ठान का वर्णन है । संगम युग में रचित तिरुप्पवई  में, पावई शैली के गीत हैं । इस शैली में अविवाहित कन्याओं द्वारा मार्गोई के पूरे महीने में व्रत रखने का अनुष्ठान करने की तमिल परंपरा का उल्लेख है। 
भक्त अंडाल के तीस गीतों में मार्गोयी महीने के लिए वैष्णव परंपरा के प्रमुख सिद्धांत सम्मिलित हैं । तिरुप्पावई को 'वेदम अनाइथुक्कम विथागुम' कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह वेदों का बीज है।  जिस प्रकार संपूर्ण वृक्ष और उससे निकलने वाले वृक्ष सूक्ष्म बीज में छिपे हुए हैं, उसी प्रकार वेदों का संपूर्ण सार तिरुप्पावई में छिपा है, जिसे केवल एक आचार्य या गुरु के मार्गदर्शन में ही प्रकट किया जा सकता है जो वैदिक शास्त्रों में पारंगत है।अंडाल द्वारा अपनी सहेलियों से जागने और कृष्ण की खोज करने की प्रार्थना के पीछे प्रतीकात्मक स्वर में वैष्णव परंपरा के तीन मूल मंत्रों का सार शामिल है - तिरुमन्त्रम, द्वयम् और चरम श्लोक जो परमात्मा या सर्वोच्च सत्ता की सच्चाई को दर्शाते हैं जो हर जड़ - चेतन में निवास करते है। उदाहरण के लिए, २७वें पशुरम में एक निहितार्थ है, जहां अंडाल एक आचार्य के महत्व को समझाती हैं जिनका मार्गदर्शन एक शिष्य के लिए  त्रिमंत्रों की सिद्धि हेतु अत्यंत अनिवार्य है।यह संपूर्ण निहितार्थ अंडाल के छंदों में काव्य के रूप में वर्णित है।
उदाहरणार्थ मैं तिरुप्पावई के पहले ६ पशुराम का अनुवाद प्रस्तुत कर रही हूं। ये भक्त अंडाल की सरल और सहज मनोभूमि को  समझने में हमारी सहायता करते हैं। 
१) *मार्गोइ तिंगल* 
इस मार्गोयी माह में,चंद्रमा की ज्योत्सना भरे इस दिन,
स्नान के लिए आओ! हे श्रृंगार प्रिय देवियों! 
हे ग्वालों के समृद्ध घरों में रहने वाली देवियों! 
वह जो निर्दय होकर तीक्ष्ण भाले से, शत्रुओं को मारता है। 
वह जो नंद गोप का पुत्र है। वह जो यशोदा का प्रिय पुत्र है। 
जो सुगंधित पुष्पों की माला पहनता है। वह जो सिंहशावक  सदृश है। 
वह जो श्याम सुंदर है। वह जिसके नेत्र रतनारे हैं। पूर्ण विकसित चंद्रमा सा जिसका मुखमंडल है। 
वह,जो हमारे देवता हैं। स्वयं नारायण हमें सुरक्षा देने जा रहे हैं,
ताकि हम स्नान करें यही है हमारा पावई (व्रत या अभ्यास) !
उनके स्तुतिगान अखिल विश्व  गाता है !! 
२) वैयाथु वाविर्गल* 
ओह! इस जगत के लोगों,
उन तपस्याओं के बारे में सुनकर प्रसन्न हों,
जो हम प्रतिदिन पावई की पूजा के लिए करते हैं,
हम उन पावन चरणों का गान करेंगे,
उनके बारे में जो क्षीरसागर में करते हैं शयन,
हम बहुत स्वादिष्ट घी नहीं लेंगे, हम स्वास्थ्य वर्द्धक दुग्ध से दूर रहेंगे,
हम प्रतिदिन सुबह होने से पहले स्नान करेंगे, 
हम आंखों में कोई काजल नहीं लगाएंगे,
 हम अपने बालों में पुष्प नहीं बांधेंगे,
हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जो निषिद्ध हो, 
हम किसी और के बारे में बुरा नहीं बोलेंगे,
 हम भिक्षा देंगे और दान करेंगे,जितना हम  कर सकते हैं करेंगे। 
और - - - - 
परदुःख से मुक्ति हेतु वे सभी कार्य करेंगे,यही हमारा व्रतम् (पावई) है।
 ३) *ओन्गी उलागालंधा*
 यदि हम उसका गुणगान करें,जो बड़े हो गए और जिन्होंने विश्व को मापा,
और हमारी देवी पावई की पूजा करें ,
तो महीने में कम से कम तीन बार बारिश होगी। 
और लाल धान के पौधे बड़े हो जाएंगे। 
और मछलियां उनके खेतों में तैरेंगी और खेलेंगी,
 और चित्तीदार मधुमक्खियां शहद पीने के बाद,
अपने दिल की संतुष्टि के लिए, पेट भरने के बाद
खुद फूल में सोएंगी, 
और बड़े थन वाली गायें दूध के बर्तनों को लबालब भर देंगी, 
और स्वस्थ गायें और धन कभी कम नहीं होगा, 
देश को समृद्धि देंगी, 
और यह सब मैं, अपने व्रत द्वारा आश्वासन देती हूं।
 *४) अई मसाई कन्ना* 
 कृपया ! हमारी इच्छाओं की पूर्ति करें,
हे वर्षा देव, जो समुद्र से आते हैं,कृपया समुद्र में प्रवेश करें,
और अपने लिए जल लाएं,उत्साह और ध्वनि के साथ इसे उठाएं, 
और जलप्रलय के देवता की तरह काले हो जाएं,
और हाथों में पवित्र चक्र की तरह चमकें,
भगवान पद्मनाभ के शक्तिशाली भुजदंड हैं,
और दक्षिणावर्ती शंख की भांति तीव्र मनभावन वाणी हैं,
और प्रचंड चक्रवात से अबाध मेह वर्षण करते हैं, 
शारंग धनु सहित विष्णु अवतरित होते हैं। जगत को आनंदित करते हैं। 
हमें मार्गोयी माह में स्नान करने में मदद करने के लिए। 
५). *मयनाई मन्नू* 
उसके लिए, जो है सभी को मंत्रमुग्ध करने वाला! 
उत्तरी दिशा के मथुरा नगरी के पुत्र को ! 
उसे जो पवित्र यमुना के तट पर था खेलता-खिलखिलाता,
उसे,जो हैअलंकृत दीपक सा,गाय के चरवाहों के परिवार को,
और उस दामोदर को जिसने अपनी माँ के गर्भ को पवित्र बनाया। 
हम पवित्र स्नान के बाद आए,और उनके चरणों में शुद्ध फूल चढ़ाए। 
वाणी से उनके गीत गाए, उनके विचारों को मन में धारण किया ,
हमें विश्वास है कि हमारे अतीत और भविष्य के सभी दोष ,
भस्मीभूत हो विलुप्त होगा अग्नि मे। 
६) *पुलम चिलम्बिना*
 क्या तुमने पक्षियों की कलरव ध्वनि को नहीं सुना?
क्या तुमने गरुड़ राजा के मंदिर से श्वेत शंख का उद्घोष नहीं सुना? 
हे कन्याओं ! कृपया उठो,हमें "हरि-हरि" की पवित्र ध्वनि सुनने दो।
पंडितों और संतों की ओर से,उसे बुलाया गया है
जिसने पूतना का विषैला दूध पिया,
वे जिन्होंने लात मारकर शकटासुर को मार डाला,
और वे जो महान आदिशेष पर शयन करते हैं। 
वे हमारे चित्त व मेधा में रहेंऔर वे हमारी बुद्धि को शीतल कर दें। 
तिरुप्पावई के ३० श्लोकों में भक्त अंडाल एक गोपिका का वेश धारण करती है। उनका मनोभाव  विष्णु से विवाह कर उनकी चिर संगिनी बनने का रहता है। इसी  कामनापूर्ति के लिए वे एक विशेष धार्मिक संकल्प लेती हैं और अपने सभी साथियों  को अपने साथ श्रीकृष्ण की सेवा करने के लिए आमंत्रित करती है। 
संत अंडाल के दूसरी रचना नच्चीयार तिरुमोषि में १४३ पदों में श्रीकृष्ण जी की लीलाओं का वर्णन किया है। 
इन दोनों ग्रन्थों का प्रभाव तमिल जगत में अत्यधिक गहरा है । दोनों ही ग्रंथ तमिल भाषा के पवित्र ग्रंथ हैं । इन कि महत्ता इस बात में भी है ये एक अल्पायु बालिका की रचनाएँ हैं । तमिल साहित्य में यह एक ऐसा अकेला उदाहरण है । तिरूपवई को जन साधारण में रामायण की भांति अत्यधिक प्रेम भाव और रुचि से सुना जाता है । तमिलनाडू के हर घर में यह ग्रंथ अत्यंत लोकप्रिय है । अनेक विद्वानों ने इस दोनों ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया है । दिसंबर और जनवरी माह में तमिल, तेलुगू ,कन्नड़ , हिन्दी,अँग्रेजी भाषाओं में भारत के विभिन्न प्रदेशों में तिरूपवई के प्रवचन चलते रहते हैं ।
"रंगनायकीअंडाल" आज तमिल क्षेत्र ही नहीं सभी की पूजनीय हैं।" गोदई "भूमि पुत्री थी! भूमि की भांति शांत,विनम्र, विनीत, धैर्यवान और सहनशील। उनके ये गुण आज के कलह-द्वेषपूर्ण वातावरण में सबके मार्ग - दर्शक बनें इन्ही शुभकामनाओं के साथ उन देवी आंडाल के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करते हुए मामुनि स्वामीजी के शब्दों में श्रद्धासुमन अर्पण करती हूं। अज़गिया मणवल मामुनिगल अर्थात मामुनि स्वामी जी उपदेश रथिना मलाई पाशुर २२, २३, २४ में रंगनायकी अंडाल की महानता की यशोगाथा गाते हैं ।  उपदेश रथिना के बाईसवें पाशुर में वे कहते हैं : - - -  
वे यह सोचकर बहुत भावविभोर हैं कि कैसे अंडाल ने परमपद प्राप्ति के मार्ग में अपनी सुख-सुविधाएँ छोड़ दीं। उनकी (स्वानुभवम्) रक्षा के लिए जगत में पदार्पण किया और पेरियालवार की दिव्य बेटी के रूप में जन्म लिया। जैसे अगर एक माँ अपने बच्चे को नदी में फँसा हुआ देखती है, तो वह भी डूबते बच्चे को बचाने के लिए नदी में कूद जाती है। अंडाल सभी की माँ हैं, वे संसारियों को बचाने के लिए भव-सागर में कूद जाती है।
     धनुर्धरायै च विद्महे सर्व
            सिद्धायै च धीमहि
         तन्नो धरा प्रचोदयाथ।
(हम उस देवी की पूजा करते हैं जिसके हाथ में धनुष और बाण है। भक्तों को सभी वरदान देने वाली देवी को नमस्कार है। कामना है कि भूदेवी हमारी रचनात्मक क्षमताओं को प्रोत्साहित करें।) 
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