जाड़ों का मौसम

जाड़ों का मौसम
मनभावन सुबह

लोकप्रिय पोस्ट

लोकप्रिय पोस्ट

Translate

लोकप्रिय पोस्ट

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

🇮🇳अटारी के स्वातंत्र्य-वीर जनरल शाम सिंह अटारीवाले🌷


🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत काल 🌷
🇮🇳 भारतीय स्वातंत्र्य-वीर जनरल शाम सिंह अटारीवाला की पावन स्मृतियों को श्रद्धाँजलि। 🌷🌷🌷🌷
जनरल अटारीवाला का बलिदान दिवस १० फरवरी को आता है। स्वतंत्रता दिवस की संध्या वेला में पंजाब के अटारी-वाघा सीमा पर बीटिंग रिट्रीट देखना हर बार राष्ट्रीयता के भाव को अलौकिक स्तर पर ले जाता है। 
वास्तव में भारत - पाकिस्तान की ऐतिहासिक राष्ट्रीय सीमा "अटारी" है। आज भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम देखते हुए हमनें देखा कि अधिकांश लोग अटारी बॉर्डर को वाघा बॉर्डर के नाम से जानते और लिखते हैं। वास्तव में, "अटारी"  एक पुराना ऐतिहासिक शहर है जो  लाहौर और अमृतसर के बीच में स्थित है। विभाजन के बाद से, भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा इसके निकट से ही गुजरती है। यह भारत (पंजाब में) का अंतिम सीमांत शहर है।अटारी की धरती वीरभूमि है। इसके सपूतों को प्राचीन काल से ही शूरवीर सैनिकों के रूप में गौरवपूर्ण स्थान मिला है। 
यह ऐसा कारण है जो हमें अंग्रेजी सत्ता से टक्कर लेने वाले जनरल शाम सिंह अटारीवाला की स्मृतियों को पुनः जगा गया जो ऐसे अप्रतिम शूरवीर हैं जिनकी देशभक्ति इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।जिनके शौर्य के विषय में शत्रुपक्ष भी  इतिहास में यह लिखने को बाध्य हो गया था-
' विश्वासघातियों के मध्य केवल शामसिंह जैसा विश्वसनीय पात्र पाया गया। ' एक वृद्ध नायक  ' जिसका नाम रेखांकित किया जाना चाहिए। वो सफेद कपड़े पहने स्वयं को मौत के लिए समर्पित कर रहा था। पुराने डेसियस की तरह, उसने अपने आस-पास के लोगों से , भगवान और गुरु के नाम पर एकजुट होकर प्रहार करने का आह्वान किया और हर जगह मृत्यु से निपटने के लिए, अपने दम पर शूरवीर की तरह तीव्रता से टूट पड़ा।
  - - - - आर.बोसवर्थ स्मिथ।
 वास्तव में मेरा निजी मत है कि हमें अटारी का नाम लेते हुए गर्व होना चाहिए। समसामयिक सत्य यह है कि , केंद्र सरकार की स्वीकृति के साथ, पंजाब सरकार ने वर्ष २००७ में अधिसूचना जारी करके आधिकारिक तौर पर इसे अटारी सीमांत (बॉर्डर) नाम दिया। 
भारत-पाकिस्तान की पंजाब में सीमा का हमारा भारतीय गांव "अटारी" है और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गांव का नाम है वाघा। 
अविभाजित पंजाब के माझा क्षेत्र में, अटारी गांव की स्थापना वर्ष १७४० के लगभग, लुधियाना (मालवा) के गांव के चौधरी कहन चंद सिद्धू के बेटों, गौर सिंह और कौर सिंह नाम के दो सिद्धू जाट भाइयों ने की थी।  दोनों भाईयों नें सतलुज नदी के पार माझा क्षेत्र में आकर बसने के लिए मूलदास नामक एक प्रख्यात स्थानीय तपस्वी से स्थान पूछा। संत मूलदास नें  एक बड़े टीले (पंजाबी में "थेह" ) की ओर इशारा किया, और उन्हें एक नया गांव बसाने का निर्देश दिया । गौरा ने टीले पर एक अटारी (तीन मंजिला घर) बनवाई और बाद में अटारी के चारों ओर एक गाँव विकसित हुआ।यही गांव अटारी गांव कहलाया। 
इसी अटारी गांव को प्रसिद्धि मिली "शाम सिंह अटारीवाला" के कारण जो शेर-ए- पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के सुप्रसिद्ध सेनापति थे। 
वर्ष१७९० में उनका जन्म अटारी में निहाल सिंह  के सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा गुरुमुखी और फ़ारसी में हुई थी। जब रणजीत सिंह पंजाब के महाराजा बने तो उन्होंने शामसिंह जी को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। उनके गुणों और युद्ध क्षमताओं के कारण महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें पांच हज़ार घुड़सवारों का 'जत्थेदार' नियुक्त किया। महाराजा रणजीत सिंह के दो सेनानायक थे। एक हरि सिंह और दूसरे का नाम शाम सिंह अटारीवाला था। जनरल शाम सिंह अटारवीला एक ऐसे योद्धा थे जिनकी प्रशंसा भारतीय ही नहीं बल्कि अंग्रेज भी करते थे। कहा जाता है कि महाराजा के विश्वासपात्र और कुशल सैन्य क्षमता से भरपूर शाम सिंह अटारीवाला युद्धक्षेत्र  में अग्रिम पंक्ति में रहते थे।  उनका सफ़ेद रेशमी परिधान शत्रुओं को त्रास देता था और वे सदा सफ़ेद घोड़े की सवारी करते थे। 
अटारीवाला नें मुल्तान और कश्मीर सहित कई विजय अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया था। ३ वर्ष की अवधि के लिए उन्हें महाराजा राजवंश सिंह द्वारा कश्मीर का गवर्नर बनाया गया था। बाद में, महाराजा राजकुमार सिंह ने उन्हें वापस लाहौर बुला लिया, क्योंकि वह महाराजा राजकुमार सिंह के विश्वासपात्र सहयोगी थे। शाम सिंह अटारी और महाराजा लक्ष्मी सिंह अच्छे मित्र थे।उनकी बेटी नानकी कौर का विवाह राजकुमार नौनिहाल सिंह से हुआ था। सिंहासन पर बैठने के बाद वे सिख साम्राज्य की महारानी बन गईं। महारानी जिंदां  नें अल्पवय महाराजा दलीप सिंह की राज-प्रतिनिधी परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। 
 इस सत्य से सभी परिचित हैं कि "शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह" के २७जून १८३९ को देहावसान के बाद अंग्रेजों की नज़र सिख साम्राज्य पर भी थी। उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन, अपने छल- छद्म के सहारे कई भारतीय रियायतें हथिया चुका था। 
१ जनवरी १८४५ के अपने एक पत्र में लॉर्ड हार्डिंग नें स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि वे - - " युद्ध करने के लिए तत्पर हैं लेकिन  कठिनाई यह है कि किस बहाने सिखों पर आक्रमण किया जाए क्योंकि सिखों के साथ अंग्रेजों केेे अच्छे संबंध हैैै। तमाम कठिनाइयों मेंं सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया है। "
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद मात्र ४ से ५ वर्षों के भीतर अनेक शासक आए। बाद में रणजीत सिंह के वंशजों में दिलीप सिंह १८४३ में राजा बने। मात्र ५ वर्ष के अल्पायु शासक की संरक्षिका के रूप में  शासन व्यवस्था महारानी जिन्दां नें संभाली।
इन सभी घटनाओं के बीच अंग्रेजी गवर्नर लार्ड डलहौज़ी अपनी हड़प नीति या व्यपगत सिद्धांत  ( Doctrine Of Lapse ) के माध्यम से भारतीय रियासतों को हड़पने का कार्य कर रहे थे। 
इसी क्रम में सिखों और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच "आंग्ल सिख युद्ध" हुए।  सिख शूरवीरों नें, १. मुदकी २. फिरोजशाह 
३. बद्दोवाल ४. आलीवाल ५ सभराओं में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्राणपण से युद्ध किया। 
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, जब सिख मुदकी और फिरोजशाह का युद्ध हार गए, तब महारानी जिंदां ने सरदार शामसिंह अटारीवाला को चिठ्ठी लिख कर युद्ध में सम्मिलित होने के लिए कहा। 
सभराओं गांव पंजाब के फिरोजपुर जिले में हरीके पतन से आठ कि.मी. दूर सतलुज नदी के किनारे पर बसा हुआ है। इसी सभराओं गांव में १० फरवरी १८४६ ई. को सिख वीरों और अंग्रेजों के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। देश का दुर्भाग्य था कि सिख सेना के कमांडर तेजा सिंह और लाल सिंह अंग्रेजों से मिल गए थे। 
१० फरवरी १८४६ के दिन युद्ध की शुरुआत गहरी धुंध में हुई थी। धुंध छंटने के बाद जब सूरज निकला तो तोपों और बंदूकों से आरपार की लड़ाई शुरु हो गई। सिख फौज ने नावों के पुल बनाकर सतलुज को पार किया और विश्वासघाती कमांडर लाल सिंह और तेजा सिंह ने सिख फौज के सतलुज पार करने के बाद नावों के पुलों को तोड़ दिया। जिससे सिख फौज अब वापस नहीं आ सकती थी। सभराओं के मैदान में तीनों ओर से अंग्रेजी सेना ने उन्हें घेर लिया। सिखों सैनिकों के पास वापस लौट कर बचाव का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया था। जनरल शाम सिंह हतोत्साहित हुए बिना लड़ाई में कूद पड़े। अपने सैनिकों के पराक्रम को बढ़ाने वाले वचनों से सब ओर जोश बढ़ाते वी नायक नें शत्रु सेना पर धावा बोल दिया ।  सभराओं के मैदान में भयंकर युद्ध शुरू हो गया।लेकिन वह ज़बरदस्त हो गयातोपों और गोलियों के प्रहारों को सिख सैनिकों ने अपने सीने पर झेलकर शहादत पाई। कहा जाता है पानीपत की लडाई के बाद सभराओं की लड़ाई में सबसे भीषण नरसंहार हुआ। इस युद्ध में आठ हज़ार सिख सैनिक शहीद हुए। शहीदों के रक्त से सतलुज का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में सरदार शाम सिंह अटारी अपने चिर - परिचित श्वेत वस्त्र पहन कर, श्वेत दाढ़ी में, श्वेत वर्ण के घोड़े पर सवार होकर युद्धक्षेत्र में गए थे। ५६ वर्षीय यह महान जरनल वीरतापूर्वक शत्रुओं से जूझते हुए,१२ फरवरी १८४६ को,अपनी छाती पर सात गोलियां खाकर शहीद हुए।परम पराक्रमी सिख योद्धाओं के साथ अपनों नें ही विश्वासघात किया था इस कारण ही सिख सेना को अत्यंत वीरता से लड़ने के बाद भी पराजय का मुख देखना पड़ा। ब्रिटिश इतिहास कारों को भी लिखना पड़ा कि यह एक ऐसा संघर्ष था जिसमें मृत्यु सुनिश्चित थी परन्तु जनरल शाम सिंह के नेतृत्व में सिख-सैनिक आगे ही बढ़ते रहे। उनके युद्ध कौशल की उत्कृष्टता ने, उनके अदम्य साहस ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।
उन्नीसवीं शताब्दी में पंजाब के राष्ट्रीय कवि के रूप में विख्यात 'शाह मुहम्मद' (१७८०-१८६२), अपनी प्रसिद्ध रचना 'जंगनामा-सिंघां ते फिरंगिआं' (१८४६) में सिक्खों और अंग्रेज़ों की पहली लड़ाई से अंतिम कालखंड की घटनाओं को आंखों देखे हाल की तरह वर्णित किया। शाह मुहम्मद नें जनरल शाम सिंह के विषय में लिखा - 
शाम सिंघ सरदार ने कूच कीता,
जल्हे वालीए बनत बणांवदे नी ।
आए होर पहाड़ दे सभ राजे,
जेहड़े तेग दे धनी कहांवदे नी । 
चड़े सभ सरदार मजीठीए जी, 
संधावाली काठियां पांवदे नी । 
शाह मुहंमदा चड़ी अकाल रजमट, 
खंडे सार दे सिकल करांवदे नी ।।
अपने समय की, हर मित्र-शत्रु की लेखनी ने वीर शाम सिंह अटारीवाला की यशोगाथा लिखी। 
परांतप दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी की वाणी - - - - "सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरै कबहू ना छाडे खेत।" 
को अंतिम क्षणों तक सार्थकता देने वाले सच्चे शूरवीर, स्वातंत्र्य-वीर के पावन चरणों में अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धासुमन 🙏



कोई टिप्पणी नहीं: