दिगम्बर परम्परा के जिनेन्द्र आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के महासमाधि लेने पर विनम्र श्रद्धासुमन 🌷🌷
"आदिम ब्रह्मा,
आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से
प्रदर्शित पथ का
आज अभाव नहीं है माँ !
परन्तु - - - -
उस पावन पथ पर
दूब उग आई है!
खूब वर्षा के कारण नहीं,
चारित्र से दूर रह कर
केवल कथनी में
करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की
भीड़ के कारण !"
माटी की मूकता को वाणी देकर कितने ही समसामयिक प्रश्नों के उत्तर देती आचार्यश्री की भारतीय साहित्य की विख्यात महाकाव्य " मूकमाटी " के उपर्युक्त शब्द, शायद इस कारण मेरे अंतस में उभरे क्योंकि मोक्ष के उस पथ को केवल कथनी नहीं कर्म से चरितार्थ करने वाले आदिनाथ की परंपरा वाले सच्चे पथप्रदर्शक -- पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं।
२२ वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर जी ने मुनि विद्यासागर को 'दिगंबर साधु' के रूप में दीक्षा दी थी। २६वर्ष की आयु में आचार्य बनने वाले विद्यासागर महाराज जी को हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था जबकि उन्होंने शिक्षा कन्नड़ भाषा में प्राप्त की थी। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने 'निरंजन-शतकं', 'भावना-शतकं', 'परीषह-जय-शतकं', 'सुनीति-शतकं' व 'श्रमण-शतकं' नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद भी किया है। उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- 'मूकमाटी' महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से भारतीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है।
मैं, आचार्य प्रवर के ही शब्दों के माध्यम से, उनको शब्दांजलि अर्पित कर, उनके दिए संदेश को आत्मसात करने का प्रयास कर रही हूं।
मूकमाटी 📖
"इस मोक्ष की शुद्ध दशा में,
अविनश्वर सुख होता है !
जिसे प्राप्त होने के बाद,
यहां संसार में आना
कैसे संभव है तुम ही बता दो !
दुग्ध का विकास होता है !
फिर अंत में घृत का विलास होता है।
घृत का दुग्ध के रूप में
लौट आना संभव है क्या?
तुम ही बता दो !"
दल की भाव भंगिमा देखकर
पुनः संत ने कहा कि
" इस पृथ्वी पर भी
यदि तुम्हें श्रमण साधना के विषय में
और अक्षय सुख के संबंध में
विश्वास नहीं हो रहा हो
तो ---- फिर अब
अंतिम कुछ कहता हूं कि
क्षेत्र की नहीं,
आचरण की दृष्टि से
मैं जहां पर हूं वहां आकर देखो मुझे।
तुम्हें होगी, मेरी सही-सही पहचान।
क्योंकि ऊपर से नीचे देखने से
मुझे चक्कर आता है और - -
नीचे से ऊपर का अनुमान
लगभग गलत निकलता है।
इसलिए इन शब्दों पर विश्वास लाओ। विश्वास की अनुभूति मिलेगी।
अवश्य मिलेगी, मगर----
मार्ग में नहीं, मंजिल पर।"
और महा-मौन में डूबते हुए संत
---- और माहौल को,
अनिमेष निहारती - सी
---- मूक माटी।
*****आचार्य विद्यासागर।
संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के कालजयी विचार, उनका दर्शन सदा सबका मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे।
इसी माह ११ फरवरी२०२४ को आचार्य विद्यासागर महाराज को 'गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड' द्वारा 'ब्रह्मांड के देवता' (God of the Universe) के रूप में सम्मानित किया गया था।
मैं इसे दिव्य संयोग मानती हूं कि वर्ष १९४६ की शरद पूर्णिमा को जन्मे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी नें चन्द्रगिरि तीर्थ पर देह त्याग किया। शनिवार १७ फरवरी को देर रात २.३५ पर उन्होंने छत्तीस गढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चन्द्रगिरि तीर्थ में, तीन दिन के उपवास और मौनव्रत के बाद शरीर त्याग दिया।
🙏 अपनी दिव्यता से भूलोक को आलोकित करने वाले जिनेन्द्र आचार्य विद्यासागर जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन।🌷🌷🌷
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें