गिरिप्रस्थेषु रम्येषु पुष्पवर्वाद्भर्मनोरमैः । संसक्तशिखराः शैला विराजन्ति महाद्रुमैः ॥ १९॥
अपने रमणीय पृष्ठभागों पर उत्पन्न फूलों से सम्पन्न तथा मनको लुभानेवाले विशाल वृक्षों से सटे हुए शिखरवाले पर्वत अद्भुत शोभा पा रहे हैं ॥ १९ ॥
पुष्पसंछन्नशिखरा मारुतोत्क्षेपचञ्चलाः । अमी मधुकरोत्तंसाः प्रगीता इव पादपाः ॥ २० ॥
जिनकी फूलों से आच्छादित शाखाओं के अग्रभाग वायु के झोंके से हिल रहे हैं। भ्रमरों को पगड़ी के रूप में शीर्ष पर धारण किये हुए ये वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो इन्होंने नृत्य-गान आरम्भ कर दिया है ॥ २० ॥
सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान् समन्ततः । हाटकप्रतिसंछन्नान् नरान् पीताम्बरानिव ॥ २१ ॥
'देखो, सब ओर सुन्दर फूलों से भरे हुए ये कर्णिकार (अमलतास) सोने के आभूषणों से विभूषित पीताम्बरधारी मनुष्यों के समान शोभा पा रहे हैं।॥ २१ ॥
{किष्किंधा कांड/प्रथम सर्ग}
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि भी अमलतास के अप्रतिम सौंदर्य से प्रभावित रहे होंगे तभी तो उन्होंने आदिकाव्य रामायण में,पम्पा सरोवर के निकटवर्ती पर्वतों पर कर्णिकार के पुष्पों का यह अद्वितीय वर्णन किया है।
भारत के विभिन्न संस्कृत शास्त्रों और साहित्यिक ग्रंथों एवं प्रांतीय कृतियों में *अमलतास* के लिए संस्कृत में - कर्णिकार, नृपद्रुम, सुवर्णक, आरग्वध, स्वर्णांग। हिन्दी में -अमलतास, सोनहाली , आयुर्वेद में - व्याधिघात, बंगला में - सोनालु, उड़िया में- सुनारी , असमिया में- सोनारु, सोनाली, अमुलतास, अंग्रेज़ी में - गोल्डन शॉवर, तमिल में- कोरैकाय, कोन्डरो, तेलुगू में- सम्पकमु, आरग्वधामु और मलयालम मे- कणिकोन्ना----- आदि-आदि नामों से पुकारा जाता है।
वास्तव में अमलतास प्रकृति के अप्रतिम मनभावन सौंदर्य का मूर्तिमंत स्वरूप है !!
अमलतास ,कर्णिकार या आयुर्वेद का आरग्वध एक मध्यम आकार का ऐसा वृक्ष है,जो प्रायः समग्र भारत में मिलता है।इस वृक्ष का, प्राचीन काल से आयुर्वेद में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता रहा है। संस्कृत में इसका एक नाम "आरग्वध" है, जिसका अर्थ है- जो रोग को समाप्त करता है। इसके फल के गूदे को सबसे अधिक औषधीय महत्व दिया जाता है। यह पाचन और सूजन रोधी कारक के रूप में काम करता है, लेकिन इसे सबसे सुरक्षित और सौम्य रेचक के रूप में जाना जाता है। इसकी जड़ का उपयोग विभिन्न त्वचा रोगों के उपचार में किया जाता है और पत्तियों का उपयोग मलहम में किया जाता है। इसके हर भाग में औषधीय गुण हैं।
यह विभिन्न चिकित्सकीय कार्यों के लिए उपयोगी हैं। यह तीनों दोषों को शांत करता है।फलों के गूदे में उपस्थित हल्का रेचक शरीर से दूषित पित्त और कफ को बाहर निकालता है।
अमलतास की औषधीय उपयोगिताओं में इसका फंगसरोधी, आक्सीकरणरोधी, रोगाणुरोधी, सूजनरोधी, यकृत- रक्षक और रक्त शर्करा नियंत्रक स्वरूप भी है। यह पीलिया, गठिया, यकृत विकारों, ब्रोंकाइटिस और त्वचा रोगों के निवारण के लिए प्रभावी है।
पके फलों के गूदे को फली से अलग किया जाता है और कब्ज को दूर करने के लिए गर्म पानी के साथ ८ से १० ग्राम की खुराक में लिया जाता है।त्वचा रोगों में खुजली मिटाने के लिए पत्तियों को पीस कर लगाया जाता है।
छाल के काढ़े से गरारे करना गले में संक्रमण, मुंह के छालों में राहत दिलाता है।
इसके औषधीय महत्व के अलावा, अमलतास की लकड़ी कठोर, भारी, लाल रंग की होती है और इसका व्यापक रूप से अलमारी, पेटिका बनाने और जड़ाई के काम में उपयोग किया जाता है। छाल का उपयोग चमड़ा उद्योग में और इसकी लकड़ी की राख का उपयोग रंगाई उद्योग में किया जाता है।
केरल राज्य में अमलतास के इन मनमोहक पुष्पों का महत्व धार्मिक दृष्टि से भी है। इन्हें विशु के त्यौहार के में 'विशुक्कनी' का मुख्य भाग माना जाता है । इसके पत्तों का उपयोग धार्मिक समारोहों में प्रसाद के रूप में भी किया जाता है। यह केरल का राजकीय पुष्प है और थाईलैंड का राष्ट्रीय पुष्प है।
मैं जब भी अमलतास की डालियों पर लहराते स्वर्णाभ झूमरों को अपने सम्मुख पाती हूं तो मंत्रमुग्ध भाव से इसे निहारती रह जाती हूं - - - - केरल का राज्य पुष्प - कणिकोन्ना!!- - - - अमलतास !! मलयालम लोकगाथाओं की अद्वितीय सुन्दरी "वासी " (वासन्ती) के दिव्य सौंदर्य के, इस सुवर्णक अमलतास के रूप में परिवर्तित होने - - - - युगों की सीमा लांघ कर धरती पर विद्यमान रहने की कथा याद आ जाती है - - - - !!!!
कहते हैं कि बहुत समय पहले घने जंगलों के मध्य आदिवासियों की कई बस्तियाँ थीं। यहाँ के आदिवासी बहुत सीधे-सादे, सरल हृदय थे। वे जंगल के फल- फूल व वन सम्पदा से अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। वे लोग छोटे-छोटे समूह बनाकर जंगल की ओर निकल जाते और दोपहर तक जंगली फल-फूल आदि बीनकर एकत्रित करते और सूरज के सिर पर आने के पहले अपनी बस्ती में लौट आते।
वन में बहती नदी के समीप ही आदिवासियों के कुलदेव वनदेवता का मंदिर था। आदिवासियों की अपने वनदेवता में अपार आस्था थी। किसी के भी घर-परिवार में कोई प्रसन्नता की बात होती तो सब मिलकर, कुलदेवता के मंदिर के प्रांगण में एकत्र होते।वनदेवता की पूजा -अर्चना के साथ भोज का आयोजन किया जाता। मृदंगम की थाप पर रात भर नृत्य-गान का कार्यक्रम चलता था।
बस्ती के आदिवासी वैसे तो प्रायः सामूहिक भोज और नाच-गाने का आनन्द लेते थे परन्तु वसन्त पूर्णिमा को वे एक बड़ा उत्सव मनाते थे। इस उत्सव की तैयारी महीना भर पहले से आरम्भ हो जाती थी। इस उत्सव के अवसर पर माह भर निरन्तर सामूहिक भोज तथा गायन-नर्तन का कार्यक्रम चलता था।आसपास की बस्तियों के युवक-युवतियाँ भी बहुत पहले से इसकी प्रतीक्षा करने लगते थे क्योंकि आदिवासियों की बस्ती में इस उत्सव के समय युवक- युवतियाँ अपने जीवन साथी का चुनाव कर विवाह बंधन में बंध जाते थे।
आदिवासियों की बस्ती में, प्रतिवर्ष इस रंगारंग उत्सव में रात भर अविवाहित युवक-युवतियाँ नृत्य करते थे।इस नृत्य के उत्सव में बस्ती की एक सुन्दर युवती वासन्ती भी भाग लिया करती थी। वासन्ती अद्वितीय सुन्दरी तो थी ही । अपने दयालु स्वभाव और मधुर वाणी के कारण वह सबकी चहेती बनी हुई धी। सभी युवक उससे विवाह करना चाहते थे।वासन्ती को बच्चे, बूढ़े,स्त्री - पुरुष सभी स्नेह से 'वासी' कहते थे। वासी अत्यंत गुणवती एवं नियम-धर्म का पालन करने वाली थी। वो प्रातःकाल उठ जाती और स्नान-ध्यान करके सबसे पहले वनदेवता को जल चढ़ाती। इसके बाद अपने घर के कार्य करती वासी पूरी बस्ती का भी ध्यान रखती। बस्ती में किसी की तबियत खराब हो, तो वासी वैद्य को बुलाकर लाती, वैद्य के साथ मिलकर जड़ी-बूटियों से दवा तैयार करती और रोगी की सेवा करती। एक बार तो बस्ती के मुखिया की माँ गम्भीर रूप से बीमार हो गई। मुखिया के घर पर कोई काम करनेवाला नहीं था। ऐसे में वासी ने सारी-सारी रात मुखिया की माँ के पास रहकर उसकी देखभाल की। अपने इन्हीं गुणों के कारण वासी बस्ती में सब की लाडली बन गई थी।
वासी पूरे सोलह वर्ष की हो चुकी थी। इस आदिवासी बस्ती की लड़कियां इस आयु तक,किसी न किसी लड़के को पसन्द कर लेती थीं और वसन्त उत्सव आते ही उसके साथ विवाह कर लेती थीं। लेकिन वासी ने अभी तक कोई लड़का पसन्द नहीं किया था| बस्ती के लोगों को आशा थी कि वह इस वर्ष अवश्य कोई लड़का पसन्द कर लेगी और उत्सव के समय उसका विवाह हो जाएगा। बस्ती के कुछ लड़कों ने आगे बढ़ कर वासी से बात करने का प्रयास भी किया, उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन वासी ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। वासी के बापू और बस्ती के मुखिया ने भी एक बार उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन वासी नें विनम्रता से उन्हें भी मना कर दिया।
वासी रूपवती, गुणवती और सुंदर युवती थी। ऐसा नहीं था कि वह विवाह करना नहीं चाहती थी। वासी विवाह करना चाहती थी, लेकिन बस्ती का कोई भी लड़का उसे पसन्द नहीं था। अतः बस्ती के किसी लड़के से वह विवाह नहीं करना चाहती थी। वासी किसी सुन्दर,सजीले,तीनों लोकों में सबसे सुन्दर युवक से विवाह करने की इच्छा रखती थी। वासी ने अपने मन की यह बात किसी को नहीं बताई थी। वह जानती थी कि अगर यह बात वह जिस को भी बताएगी वह उसकी हँसी उड़ाएगा और उसे पागल कहेगा। लेकिन वासी ने मन-ही-मन यह निश्चित कर लिया था कि वह तीनों लोकों के सबसे सुन्दर युवक से विवाह करेगी।
वासी के मन में तीनों लोकों के सबसे सुन्दर युवक से विवाह करने की बात नई नहीं आई थी। जब वह पाँच वर्ष की थी और विवाह का मतलब भी नहीं समझती थी तभी उसने एक सपना देखा था। उसे एक साधु ने सपने में दर्शन दिए थे और कहा था कि वह चाहे तो उसका विवाह तीनों लोकों के सबसे सुन्दर, दिव्य, अलौकिक, प्रतिभाशाली युवक से हो सकता है। साधु ने वासी से यह भी कहा था कि उसका यह कार्य वन देवता कर सकते हैं। इसके लिए उसे अभी से प्रतिदिन नियमित रूप से प्रात:काल वन देवता को जल चढ़ाना होगा। अपनी बात पूरी करने के बाद साधु महाराज अन्तर्धान हो गए। वासी सपना देखने के बाद सो नहीं सकी। वह उठकर बैठ गईऔर सोच-विचार करने लगी। पाँच साल की वासी इस सपने का अर्थ नहीं समझ पा रही थी। उसकी समझ में बस इतना आ रहा था कि वन देवता को जल चढ़ाएगी तो उसे बहुत सुन्दर दूल्हा मिल जाएगा।
अगले दिन प्रातःकाल वासी ने बड़ी देर तक स्नान किया और फिर साफ-धुले कपड़े पहनकर एक बर्तन में जल लेकर वन देवता के मन्दिर की ओर चल पड़ी। उसके माता-पिता ने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रही है ? लेकिन वासी कुछ भी नहीं बोली। वह सीधी वन देवता के मन्दिर पहुँची और वन देवता पर जल चढ़ाकर वापस आ गई।
धीरे-धीरे वासी का यह नियम बन गया। वह प्रतिदिन प्रातःकाल उठती, स्नान करती, साफ-धुले कपड़े पहनती और जल लेकर वन देवता के मन्दिर पहुँच जाती तथा जल चढ़ाकर वापस लौट आती। उसके घरवालों ने उससे इस बारे में कई बार पूछा, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। कुछ समय बाद घरवालों ने उससे इस सम्बन्ध में पूछना बन्द कर दिया। वासी ने घरवालों के समान ही बस्तीवालों को भी कभी कुछ नहीं बताया।
वासी में, आयु बढ़ने के साथ बहुत से परिवर्तन आ गए। वासी जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उसकी बोलने की आदत कम होती गई। बारह-तेरह वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते तो उसने चुप रहना आरम्भ कर दिया। अब वह बहुत कम बोलती थी और केवल काम की बातें करती थी। उसमें अपनी आयु की अन्य लड़कियों के समान न चुलबुलापन था और न किसी से लड़ने-झगड़ने की आदत थी। वासी जो कुछ करती थी, अच्छा करती थी और जितना बोलती थी, मीठा बोलती थी। जब वह बोलती थी तो ऐसा लगता था, मानो उसके मुँह से फूल झर रहे हों। वह पूरी बस्ती के लोगों के काम करती थी और सभी बड़े बुजुर्गों की निःस्वार्थ सेवा करती थी। इसीलिए पूरी आदिवासी बस्ती उसके गुण गाती थी और उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी।
वासी का सोलहवाँ वर्ष आधा बीत चुका था। इस समय उसका रूप और सौन्दर्य देखते ही बनता था। वह स्वर्ग की अप्सराओं से भी अधिक सुन्दर दिखाई देने लगी थी। उसके शरीर साँचे में ढला था।
सर्दियों का मौसम समाप्त हो रहा था और वसन्त उत्सव की तैयारियाँ आरम्भ हो गई थीं। अचानक एक रात वासी को सपने में वही साधु दिखाई दिया। वासी ने इतने लम्बे समय बाद भी साधु को पहचान लिया। साधु के चेहरे पर अलौकिक तेज था। उसके दिव्य तेज से वासी का घर भर गया। वासी ने साधु को प्रणाम किया और उसे बताया कि वह उसकी आज्ञा के अनुसार वन देवता को नियमित जल चढ़ा रही है। साधु ने वासी की यह बात बड़े ध्यान से सुनी और उसकी ओर मुस्कराकर देखा। साधु ने उसे बताया कि उसे सब मालूम है। उसे यह भी मालूम है कि वह नियमित रूप से बड़े पवित्र भाव से वन देवता को जल चढ़ा रही है। इतनी बात कहने के बाद साधु कुछ पल के लिए रुका और फिर उसने बताया कि अब उसकी साधना पूरी हुई। इस बार वह बसन्त उत्सव में बड़ी हँसी-खुशी से भाग ले। इसी बसन्त उत्सव पर उसे तीनों लोकों का सबसे सुन्दर युवक मिलेगा और उससे विवाह करके उसे अपनी पत्नी बनाएगा परन्तु सौभाग्य का यह सुख थोड़े समय का होगा। इतना कहकर साधु ने दाहिना हाथ वासी के सिर पर रखकर उसे आशीर्वाद दिया और अन्तर्धान हो गया।साधु को सपने में देखने के बाद इस बार वासी की नींद नहीं टूटी। वह रातभर मीठी नींद सोती रही और मधुर सपने देखती रही और सोचती रही कि सुख की अवधि छोटी हो या बड़ी क्या अंतर है। वर्तमान में सुख तो है भविष्य के लिए चिंता क्यों करूं।
प्रातःकाल जब वो सोकर उठी तो बहुत प्रसन्न थी। उसके होंठों पर बार-बार मुस्कराहट खिल रही थी। उसे जैसे ही साधु की बात याद आती, आँखों में एक अजीब-सा आनंद छा जाता। इस वर्ष का वसन्त उत्सव उसके लिए नई आशाऐं लेकर आ रहा था। वासी बार-बार अपने होनेवाले पति के बारे में सोच रही थी। साधु के आशीर्वाद से उसे तीनों लोकों में सबसे सुन्दर पति की प्राप्ति होने वाली थी। वासी के सुन्दर खिले हुए मुस्कराते चेहरे को उसके घरवालों ने भी देखा। उन्हें बहुत अच्छा लगा। लेकिन उन्होंने इस बार उससे कुछ पूछा नहीं।
वासी बहुत खुश थी। लेकिन उसकी दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। उसने हमेशा की तरह स्नान किया और साफ-धुले कपड़े पहनकर एक बर्तन में जल लेकर वन देवता के मन्दिर की ओर चल पड़ी। वासी यूँ तो सामान्य बनी हुई थी, लेकिन आज उसकी चाल में हिरनी-सी चंचलता साफ दिखाई दे रही थी। उसके खिले हुए चेहरे और हिरनी जैसी चाल को बस्ती वालों ने भी देखा।उन्होंने यह अनुमान लगाया कि वासी को बस्ती का कोई युवक पसन्द आ गया है इसीलिए वह प्रसन्न दिखाई दे रही है।
वासी ने बस्तीवालों की दृष्टि पर कोई ध्यान नहीं दिया और सीधी वन देवता के मन्दिर आ पहुँची । उसने बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ वन देवता पर जल चढ़ाया और वहीं दोनों हाथ जोड़कर बैठ गई । न जाने क्यों आज उसका मन, वन देवता से बहुत-सी बातें करने का हो रहा था। वह वन देवता से कुछ कहना चाहती थी, लेकिन लज्जा के कारण कुछ कह नहीं पा रही थी। वासी बड़ी देर तक वन देवता के सामने बैठी रही और फिर अपने घर आ गई।
आदिवासियों की बस्ती मे बसन्त उत्सव की तैयारियाँ आरम्भ हो चुकी थीं। वासी हमेशा चुपचाप उत्सव की तैयारी देखती रहती थी। लेकिन इस बार वह भी उत्सव की तैयारी में शामिल हो गई। उससे बस्ती की कई युवतियों व महिलाओं ने पूछा कि क्या उसे कोई पसन्द आ गया है ? लेकिन वासी कुछ नहीं बोलीं। उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया और बड़े मनोयोग से उत्सव की तैयारियों में लगी रही।
इस बार वासी के भाग लेने के कारण लोगों की खुशी बहुत बढ़ गई थी। लोगों को यह जानने की बड़ी उत्सुकता थी कि वह कौन सौभाग्यशाली है, जिसे वासी ने पसन्द किया है और जिससे वह विवाह करेगी। सभी लोग तरह- तरह की बातें कर रहे थे।
धीरे-धीरे वसन्त उत्सव का दिन आ गया। दोपहर को सामूहिक भोज हुआ और शाम होते ही बस्ती के लड़के-लड़कियाँ सज- धजकर वन देवता के मन्दिर के सामने एकत्रित हो गए। वनदेवता के मन्दिर के सामने का मैदान इस उत्सव के लिए विशेष रूप से सजाया गया था। मैदान के चारों ओर की लताओं में रंग-बिरंगे, सुगन्धित फूल बाँधकर वन्दनवार लगाए गए थे और मैदान के मध्य में अग्निकुंड तैयार किया गया था। परम्परा के अनुसार विवाह के इच्छुक युवक - युवतियाँ इसी अग्निकुंड के चारों ओर एक- दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते थे और सात फेरे होते ही विवाहित मान लिए जाते थे।
वासी नें आज भी पहले की तरह वन देवता के मन्दिर में जाकर जल चढ़ाया । इसके बाद घर के काम-काज निपटाए और दोपहर होते-होते वन देवता के मन्दिर के सामने वाले मैदान में आ गई। सभी वासी की पसन्द के लड़के के बारे में जानना चाहते थे, लेकिन वासी वसन्त उत्सव के काम में सबका हाथ बँटाती रही, पर बोली कुछ नहीं । वह थोड़ी- थोड़ी देर में वन देवता के मन्दिर के द्वार की ओर देख अवश्य लेती थी। धीरे-धीरे शाम हो गई और रात का अँधेरा बढ़ने लगा। इसी समय मन्दिर के पुजारी ने अग्निकुंड में घी डाला और अग्नि प्रज्वलित कर दी। इसके साथ ही मृदंग और वाद्ययंत्र बजने लगे।
आदिवासी युवाओं के समूह को इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उन्होंने अपने-अपने जोड़े बनाए और अग्निकुंड के निकट आकर थिरकने लगे। वे प्रेम और मादकता के मधुर गीत गा रहे थे और एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए नाच रहे थे। नाचते समय उल्लास से उनका मुखमण्डल दमक रहा था।
वासी ने आज अपने शरीर पर हल्दी और चन्दन का उबटन लगाया था और सुंदर श्रृंगार किया था।उसके शरीर पर पीले वस्त्रों की शोभा ऐसी थी मानो वसन्त ऋतु का समस्त ऐश्वर्य उसी पर छा गया हो। वासी बहुत आनन्दित थी। आज उसे अपना जीवनसाथी मिलनेवाला था। लेकिन कभी-कभी वह उदास और चिन्तित हो जाती थी क्योंकि उसका जीवनसाथी अभी तक उसे दिखाई नहीं दिया था।
अग्निकुंड के चारों ओर युवा युगल मोहक नृत्य कर रहे थे और वासी पास खड़ी उनका नृत्य देख रही थी। लेकिन नृत्य देखने में उसका मन नहीं लग रहा था। उसकी दृष्टि बार-बार वनदेवता के मन्दिर की ओर उठ जाती थी। प्रतीक्षा का एक-एक पल उसके लिए कठिन होता जा रहा था।
धीरे-धीरे अर्धरात्रि का समय आ गया।
वासी को लगा कि उसकी जीवन भर की तपस्या व्यर्थ हो गई है। स्वप्न में देखे साधु का कथन सत्य नहीं था। उसका विश्वास डगमगाने लगा। अचानक उसके मन में एक विचार आया। अब वह जीवित नहीं रहेगी। इसी अग्निकुंड में कूदकर अपनी जान दे देगी। प्राणों के उत्सर्ग का विचार आते ही वासी के मुख- मंडल पर अलौकिक आभा छा गई। उसने एक बार पुनः वन देवता के मन्दिर की ओर देखा और मन-ही-मन वनदेवता को प्रणाम कर अग्निकुंड की ओर बढ़ गई ।
उसी समय वन देवता के मन्दिर से एक सुन्दर, सजीला युवक निकला। उसने तेजी से आगे बढ़ कर,अग्निकुंड की ओर बढ़ती हुई वासी का हाथ पकड़ लिया।वासी ने अपना हाथ पकड़नेवाले युवक की ओर देखा। वह बस्ती का कोई युवक नहीं था। वह तीनों लोकों का सबसे सुन्दर युवक था। वह प्रेम और सौंदर्य का देवता कामदेव था। अग्निकुंड के चारों ओर नृत्य करते हुए युवक- युवतियों के पैर थम गए। उन्होंने वासी और उसके पास खड़े युवक को देखा तो देखते ही रह गए। बस्तीवालों ने ऐसी अप्रतिम मनमोहक युगल छवि, पहले कभी नहीं देखी थी।
वासी ने एक बार पुनः वन देवता को प्रणाम किया और इसके बाद उसके पैर थिरकने लगे। उसके साथ उसका साथी भी नृत्य कर रहा था। दोनों का नृत्य अदभुत और अलौकिक था। दोनों बड़ी देर तक नृत्य करते रहे। उन्होंने नृत्य करते-करते अग्निकुंड के सात फेरे लगाए और प्रातःकाल होते-होते घर आ गए। वासी के घर-परिवार वालों ने सुन्दर, सजीले युवक को देखा तो उनके मन भी खिल उठे। उन्होंने वासी के लिए जैसे पति की कल्पना की थी वह उससे कई गुना अधिक सुन्दर था। वासी के घरवालों ने दोनों के रहने के लिए एक अलग घर की व्यवस्था कर दी और वे दोनों साथ-साथ रहने लगे।
धीरे-धीरे दो माह बीत गए। वासी के विवाह के बाद आसपास के जंगल में ढेर सारे फूल खिल गए थे। इतने फूल पहले कभी नहीं खिले थे। ऐसा लग रहा था, मानो वासी के विवाह की खुशी में पूरा जंगल प्रसन्न हो रहा हो।वासीके आनन्द की सीमा नहीं थी। उसकी तपस्या सफल हो गई थी। उसे अपनी पसन्द का, तीनों लोकों का सबसे सुन्दर पुरुष, पति रूप में मिल गया था। अब उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रह गई थी। वह अपने सुन्दर, सजीले पति के साथ आराम से अपना जीवन व्यतीत करना चाहती थी।
धरती की यह बेटी कहाँ जानती थी कि उसका पति और कोई नहीं, कामदेव था। कामदेव की पत्नी रतिदेवी नें, स्वर्ग में अपने पति की कुछ समय तक प्रतीक्षा की, लेकिन जब वह लम्बे समय तक वापस नहीं आए तो वह स्वयं उनकी खोज में धरती पर आ पहुँची। उसने शीघ्र ही कामदेव को ढूँढ़ निकाला और- - - - एक दिन प्रातःकाल रतिदेवी वासी के घर के सामने आकर खड़ी हो गई। वासी वन देवता को जल चढ़ाकर लौट रही थी। उसने अपने घर के बाहर रतिदेवी को देखा तो उसे प्रणाम किया।रतिदेवी को, पीले वस्त्रों और स्वर्णाभूषणों से सजी वासन्ती अपना ही प्रतिरूप दिखाई दे रही थी। अपने पति को आकृष्ट करने वाली मानवी को देख, कामदेव की पत्नी रति क्रोध में थी। उसने बड़ी क्रोधित दृष्टि से वासन्ती की ओर देखा। वासन्ती अचरज से रतिदेवी के क्रोधित स्वरूप को देख रही थी तभी उसने घर के द्वार पर अपने पति को देखा। वासन्ती के मुखमण्डल पर फैली मुस्कान नें रतिदेवी के क्रोध को और बढ़ा दिया और रतिदेवी के श्राप नें उसे भस्म कर कर दिया। कामदेव नें दुखी होकर रतिदेवी को वासन्ती द्वारा वनदेवता की तपस्या के वरदान के रूप में तीनों लोकों में सुन्दर पति प्राप्त करने का परिचय देते हुए सामने पड़ी भस्म का स्पर्श किया। अचानक एक चमत्कार हुआ। जहाँ वासन्ती अदृश्य हो गई थी वहाँ सुन्दर गहरे पीले रंग का फूलोंवाला एक वृक्ष प्रकट हो गया।
वासन्ती की अलौकिक सौन्दर्य वान पति के साथ जीवनयापन करने की इच्छा पूरी तो हुई परन्तु उसका सुखी जीवन अधिक समय तक स्थायी नहीं रह सका।
रतिदेवी का क्रोध शान्त हो चुका था। उसने कामदेव का हाथ पकड़ा और देवलोक की ओर चल पड़ी---- और वासन्ती पीले फूलों से लदे वृक्ष का रूप धारण कर, सौंदर्य का अभूतपूर्व प्रतिमान बनकर इस धरती पर युगों से सबको आनन्द प्रदान कर रही है। यह कथा है मूर्तिमंत पीताम्बर धारी दिव्यता -कणिकोन्ना (अमलतास) की !!
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